घुट रहा है दम
क़दम अगर हैं जम गए
तो रास्ता चले
घुट रहा है दम यहां
अब तो हवा चले…
(१)
उलट-पलट होती रहे
तख्त और ताज में
हम ज़िंदा हैं कि मूर्दादिल
कुछ तो पता चले…
(२)
एक सूली चढ़ा नहीं
कि दूसरा चला आए
कुफ़्र में मरने वालों का
ये सिलसिला चले…
(३)
ज़ात-धरम अलग तो क्या
हम हैं तो इंसान ही
चाहे जितना मनमुटाव हो
अपना रिश्ता चले…
(४)
इश्क़ और इंक़लाब को
जिस पर रहा है नाज़
हर हाल में दीवानों का
वह कारवां चले…
(५)
वक़्त के फनकारों की
ख़ामोशी ठीक नहीं
खुली बगावत न सही
लेकिन मर्सिया चले…
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Shekhar Chandra Mitra
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