घर हो तो ऐसा
लघुकथा
घर हो तो ऐसा
“दामाद जी, आखिर आपने उस घर में ऐसा क्या देखा कि अपनी बेटी के रिश्ते के लिए तुरंत हामी भर दी ?” शर्मा जी से उनके ससुर जी ने पूछा।
“पापा जी, उस घर में जहाँ मैंने आपकी नवासी का रिश्ता तय किया है, वहाँ बच्चों का बचपन और बड़ों का बड़प्पन दोनों ही सुरक्षित हैं। आज के समय में ऐसे परिवार दुर्लभ हैं।” शर्मा जी ने बताया।
“आपकी बात मैं ठीक से समझा नहीं बेटा।” ससुर जी ने जिज्ञासावश पूछा।
“पापा जी, हमारे होने वाले दामाद जी से तो आप सभी भलीभांति परिचित हैं। कल हमने लगभग पाँच घंटे उनके घर में बिताए। हमने देखा कि हमारे भावी समधी जी के परिवार में उनके पिता जी की ही चलती है। उनके दोनों बेटे व्हीलचेयर पर रहनेवाले अपने पिता जी की हर बात अक्षरशः मानते रहे। उनकी पत्नी अपनी बड़ी बहू के साथ लगभग पूरे समय किचन में लगी रहीं। दोनों छोटे बच्चे ज्यादातर समय अपने दादाजी और चाचाजी याने हमारे भावी दामाद जी से चिपके रहे। उनके घर की दीवारें बच्चों के लिए उपयोगी वर्णमाला, अल्फाबेट, गिनती, चार्ट से पटा हुआ है। वरना आजकल लोग फैशनेबल और दिखावे के चक्कर में घर में बड़ों और बच्चों के लिए कहाँ स्पेस रखते हैं ? इसलिए मुझे लगा कि हमारी परी के लिए वह परफेक्ट घर साबित होगा।”
ससुर जी ने शर्मा जी की ओर प्रशंसाभरी नजरों से मुस्कुराते हुए देखा। आँखें मानों कह रही हों, “पच्चीस साल पहले मैंने भी ऐसे ही एक परफेक्ट परिवार और युवक का चुनाव अपनी बेटी के लिए किया था।”
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़