घर बाहर जूझती महिलाएं(A poem for all working women)
ऑफिस से आकर मैं आराम करता हूँ, वो घर का काम करती है,
घर देखकर मेरी थकावट बढ़ जाती है, और उसकी जैसे उतर जाती है।।
मैं बिस्तर पर सिमट जाता हूँ, वो घर के हर कौने में फैल जाती है,
मुझे आँखों में थकान दिखती है, उसे घर के कौने में धूल और जाली दिखती है।।
इतनी हिम्मत पता नहीं उसमें कहाँ से आती है,
मैं थक कर चूर होता हूँ, वो पानी पिलाकर चाय बनाती है।।
गरमागरम चाय का मैं एक एक घूँट आराम से पीता हूँ,
ठंडी हो रही चाय उसका बेसब्री से इंतजार करती है।।
वो खाना तैयार करती है, मैं दफ्तर में हुई बातों पर बड़बड़ाता हूँ,
ना वो परेशान दिखती है, घर एवं दफ्तर में वो भी काम करती है।।
उसे देखकर बच्चे मुस्कुराते हैं, उसके गले से चिपक जाते हैं,
मुझे देखकर बच्चे मुँह बनाते है, और डर कर भाग जाते हैं।।
वो थोड़ा सा लेट जाती है, बच्चे खेलते झगड़ते चीख पड़ते हैं,
मैं बच्चों में दो-चार जड़ता हूँ, वो उठकर उनको प्यार करती है।।
मैं कपड़े गंदे कर फेंक देता हूँ, लंच बॉक्स बैग में रखा छोड़ देता हूँ,
वो घर की हर गंदगी उठाती है, झाड़ू लगाती है और गंदे कपड़े साफ करती है।।
उसे मालूम है मेरे स्वाद की सब्जी कैसे बनती है, वो उतनी ही पतली रोटी बनाती है,
मुझे गरमागरम खिलाती है और खुद ठंडे आधे-पूरे भोजन में ही संतुष्टि पाती है।।
दफ्तर की बातों को वहीं छोड़कर आती है, घर वो पत्नी और माँ बनकर आती है,
मैं दफ्तर की बातों उलझा रहता हूँ, दफ्तर-राजनीती की खुंदस बच्चों बीबी पर निकालता हूँ।।
वो पैसा कमाती ना खुद से खर्च करती है मुझे मालिक बनाती है,
मैं पैसा कमाता हूँ, शराब सिगरेट बेफिक्र होकर पीता हूँ।।
मिला क्या औरत को आजादी में, पुरुषों से हुई बराबरी में,
घर में वही जिल्लत जारी है, बाहर भी हो रही शिकार बेचारी है।।
prAstya…{प्रशांत सोलंकी}