घनाक्षरी – सोदाहरण व्याख्या
घनाक्षरी – सोदाहरण व्याख्या
लेखक : आचार्य ओम नीरव
संपर्क : 8299034545
आमुख
घनाक्षरी छन्दों को ठीक प्रकार से आत्मसात करने के लिए कुछ शास्त्रीय पदों को समझना आवश्यक है जो निम्लिखित प्रकार हैं-
मात्राभार : किसी वर्ण के उच्चारण में लगने वाले तुलनात्मक समय को मात्राभार (संक्षेप में ‘भार’) कहते हैं। हिन्दी में इसके दो प्रकार हैं- लघु और गुरु। हृस्व वर्णों जैसे- अ, इ, उ, ऋ, क, कि, कु, कृ आदि का मात्राभार लघु होता है जिसे ल या 1 या । से प्रदर्शित करते हैं। दीर्घ वर्णों जैसे आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अह, का, की, कू, के, कै, को, कौ, कं, कः का मात्राभार गुरु होता है जिसे गा या 2 या S से प्रदर्शित करते हैं। संयुक्ताक्षर जैसे क्य, क्र, क्व, क्ष, त्र, ज्ञ आदि का मात्राभार लघु होता है तथा संयुक्ताक्षर के पूर्ववर्ती लघु का मात्राभार उच्चारण में सामान्यतः गुरु हो जाता है, जैसे- द्रव्य = गाल या 21, पत्रक = गालल या 211, कन्या = गागा या 22 आदि।
वर्णिक और वाचिक भार : किसी शब्द के वर्णों के अनुरूप मात्राभार को वर्णिक भार कहते हैं जबकि उच्चारण के अनुरूप मात्राभार को वाचिक भार कहते हैं, जैसे ‘विकल’ का वर्णिक भार ललल या 111 है जबकि वाचिक भार लगा या 12 है।
मापनी : लघु-गुरु के विशेष क्रम को मापनी कहते हैं। मापनी दो प्रकार की होती है- वाचिक भार पर आधारित वाचिक मापनी तथा वर्णिक भार पर आधारित वर्णिक मापनी। मात्रिक छन्दों के लिए वाचिक मापनी तथा वर्णिक छन्दों के लिए वर्णिक मापनी का प्रयोग होता है।
छन्द : छन्द मुख्यतः लय का व्याकरण है। ये दो प्रकार के होते हैं- मात्रिक और वर्णिक।
मात्रिक छन्द : जिन छन्दों में मात्राओं की संख्या निश्चित होती है उन्हें मात्रिक छन्द कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं- मापनीयुक्त और मापनीमुक्त।
वर्णिक छन्द : जिन छन्दों में वर्णों की संख्या निश्चित होती है उन्हें वर्णिक छन्द कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं- मापनीयुक्त और मापनीमुक्त। इनमे से 26 तक वर्णों वाले छन्द सामान्य तथा 26 से अधिक वर्णों वाले छन्द दण्डक कहलाते हैं। मापनीयुक्त दण्डकों को साधारण दण्डक कहते हैं जैसे कलाधर, अनंगशेखर आदि तथा मापनीमुक्त दण्डकों को मुक्तक दण्डक कहते हैं जैसे मनहर घनाक्षरी, रूप घनाक्षरी आदि।
घनाक्षरी छन्द : सामान्यतः 30 से 33 वर्णों वाले मुक्तक दण्डकों को घनाक्षरी छन्द कहते हैं जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित होती है किन्तु प्रत्येक वर्ण का भार अनिश्चित होता है जैसे सूर, मनहर, रूप, जलहरण, कृपाण, लगान्त विजया, नगणान्त विजया और देव घनाक्षरी। इसके अतिरिक्त कुछ साधारण दण्डक भी घनाक्षरी की कोटि में आते हैं जिनमें वर्णों की संख्या के साथ-साथ प्रत्येक वर्ण का भार भी निश्चित होता है जैसे कलाधर, जनहरण, समात्रिक डमरू और अमात्रिक डमरू घनाक्षरी। तथापि परम्परा से सभी प्रकार के घनाक्षरी छन्दों को मुक्तक दण्डकों की कोटि में ही सम्मिलित करने का चलन रहा है।
घनाक्षरी का विशेष प्रवाह : घनाक्षरी की मुख्य पहचान उसके विशेष प्रवाह से होती है। श्रेष्ठ घनाक्षरी छन्दों को लय में पढ़ने से यह विशेष प्रवाह रचनाकार को आत्मसात हो जाता है और वह उसी प्रवाह में रचना करने लगता है, साथ ही निर्दिष्ट शिल्प-विधान की दृष्टि से भी अपनी रचना को निरखता-परखता रहता है।
सम-विषम : 1,3,5 … वर्णों के शब्द को विषम तथा 2,4,6 … वर्णों के शब्द को सम कहते हैं। सम-विषम की गणना में शब्द के साथ उसकी विभक्ति को भी सम्मिलित कर लिया जाता है।
आन्तरिक अन्त्यानुप्रास : जब घनाक्षरी में 8-8 वर्णों के पदों के अंत में समानता होती है तो इसे आतंरिक अन्त्यानुप्रास कहते हैं। इससे घनाक्षरी में विशेष लालित्य उत्पन्न होता है। उदारहरण के लिए इस कृति के छन्द संख्या 1, 2, 3, 34, 35, 36, 37, 38, 39, 41, 42, 43, 44, 45, 46, 47, 48, 49, 54. 55 और 56 उल्लेखनीय हैं।
सिंहावलोकन : जब किसी छन्द में प्रत्येक चरण के अंत में आने वाले शब्द या शब्द समूह से अगले चरण का प्रारम्भ होता है और छन्द के प्रारम्भ में आने वाला शब्द या शब्द समूह उसके अंत में आता है तो इस प्रयोग को सिंहावलोकन कहते हैं। इससे छन्द में विशेष लालित्य उत्पन्न होता है। उदारहरण के लिए इस कृति के छन्द संख्या 10, 31, 34 और 35 उल्लेखनीय हैं।
(विस्तृत अध्ययन के लिए लेखक की कृति ‘छन्द विज्ञान’ पठनीय है।)
1. सूर/मनहरी घनाक्षरी
इस छन्द में चार समतुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 30 वर्ण होते है, 8-8-8-6 वर्णों पर यति अनिवार्य होती है, अंत में ललल उत्तम होता है, 8 वर्णों के पदों में विषम-सम-विषम प्रयोग वर्जित होता है।
यह वर्णिक मापनीमुक्त दंडक अथवा वर्णिक मुक्तक दंडक छन्द है।
महाकवि तुलसीदास ने विनयपत्रिका और गीतावली के पदों में इस छन्द का प्रचुरता से अनुप्रयोग किया है।
प्रस्तुत उदाहरणों में सभी चरणों के अंत में ललल आया है, किन्तु यह अनिवार्य नहीं है।
(1) कैसा है चलन
कुछ भी न काम-धाम, पड़े-पड़े आठों याम,
रटते हैं राम-राम, कैसा है चलन।
धर्म का न जानें मर्म, आलस में छोड़ें कर्म,
देख-देख मोटी चर्म, होती है घुटन।
मौन देखते अनीति, धर्म की नहीं प्रतीति,
भीरुता बनी है रीति, नीति का हनन।
कर्मवीर हनुमान, यही युग का आह्वान,
लंकापुरी को संधान, कर दो दहन।
(2) बना है गरल
चला है होली का रंग, मन में उठी उमंग,
रहा रंग के ही संग, कीचड़ उछल।
डीजल से काले हाथ, रँगने को साथ-साथ,
छोरे-छोरियों के माथ, रहे हैं मचल।
कोई तो चढ़ाये भाँग, कोई रहा दारू माँग,
करता फूहड़ स्वाँग, दल है प्रबल।
रंग को कुरंग कर, रूप जो रहा उघर,
पावन त्योहार पर, बना है गरल।
(3) कभी हो न कम
घर में रूपये पैसे, बढ़ते हैं जैसे-जैसे,
चाह बढ़े वैसे-वैसे, कभी हो न कम।
मिटती न वासना है, बढ़ जाती कामना है,
जग जाती भावना है, बजे सरगम।
रूप की मिटे न प्यास, तीव्र होती अनायास,
ढोल बिना आसपास, होती ढमढम।
वासना का हल पाना, गिर के सँभल पाना,
आग से निकल पाना, है नहीं सुगम।
2. मनहर/मनहरण घनाक्षरी
इस छन्द में चार समतुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 31 वर्ण होते है, 16-15 वर्णों पर यति अनिवार्य होती है जबकि 8-8-8-7 वर्णों पर यति उत्तम होती है, अंत में गा अनिवार्य होता है जबकि लगा उत्तम होता है, 8 वर्णों के पदों में विषम-सम-विषम प्रयोग वर्जित होता है।
यह वर्णिक मापनीमुक्त दंडक अथवा वर्णिक मुक्तक दंडक छन्द है।
यह घनाक्षरी का सवसे अधिक प्रचलित भेद है।
प्रस्तुत उदाहरणों के छन्द 10 में सिंहावलोकन का प्रयोग किया गया है तथा छन्द 18 से 22 तक एक ही भावभूमि पर उगी एक धारावाहिक रचना है जिनमें अंतिम चरण एक समान है।
(4) कला
सबसे बड़ा मैं कवि, सर्वश्रेष्ठ छन्दकार,
ऐसा नहीं दम्भ भरमाये कभी मुझको।
शिल्प सधी भाव भरी, रचना हो रस-सिक्त,
रंच भी न तोड़-जोड़, भाये कभी मुझको।
एक और एक और, कह के पढ़ूँ न बीस,
मीत कोई भी न टोक, पाये कभी मुझको।
अपनी सुना के भाग, लेते जो धता बता के,
उनकी कला न अम्ब, आये कभी मुझको।
(5) साधना
साधना की नाव के, अधीन हो प्रसन्न रहो,
आयेंगी हवाएँ अनुकूल प्रतिकूल भी।
सविता हो तम-तोम वेधते रहो अबाध,
फेंकते रहेंगे मूढ़ कूद-कूद धूल भी।
माली हो सुनो, रहा करो सदा-सदा सचेत,
उग आते बाग में कभी-कभी बबूल भी।
प्रेम के पथिक छाले पाँव के निहारो नहीं,
नेह से लगाओ अंक फूल और शूल भी।
(6) संविधान को प्रणाम है
देश की स्वतन्त्रता के हेतु चढ़े फाँसी पर,
उन बाँकुरों के वालिदान को प्रणाम है।
जिसके उत्सर्ग को न कोई कभी जान पाया,
ऐसे गुमनाम अनजान को प्रणाम है।
ऊँच-नीच भेद-भाव दूर करने निमित्त,
चल रहे मूक अभियान को प्रणाम है।
चाय वाले को प्रधानमंत्री जो बनाने वाला,
ऐसे शक्तिमान संविधान को प्रणाम है।
(7) डसने लगे
सत्य-न्याय-नीति-धर्म कंस के हुए अधीन,
राजनीति-कारा में निरीह धसने लगे।
क्रूरता की कारा में तुम्हारा कब होगा जन्म,
भाव-मंदिरों के तुंग-शृंग खसने लगे।
क्या हुआ कि बाँसुरी की तान विष-वाण बनी,
छद्म-सूत्र-जाल ग्वाल-बाल फसने लगे।
बाँसुरी की धुन पर, अब न रहा विश्वास,
कालिये भी बाँसुरी बजा के डसने लगे।
(8) आरक्षण
संविधान देश का न पत्थर-सा प्राणहीन,
संविधान है सप्राण, रहता जीवंत है।
मातृभूमि का विदीर्ण उर देख रोता यह,
झूमता जो आता कभी वीरों का वसंत है।
जाति-धर्म में बँटी व्यवस्था एक अभिशाप,
मिटती नहीं तो दुखी रहता अत्यंत है।
रुग्ण ही है भारत का संविधान जब तक,
जातिगत आरक्षण का न होता अंत है।
(9) अधूरा रह जायेगा
देशवासियों का पेट भरता जो देता शक्ति,
क्यों नहीं किसान भगवान कहलायेगा।
देश की शिराओं में प्रवाहित रुधिर करे,
ऋण कभी उसका न देश चुका पायेगा।
लालकिले के कंगूरों, कोठियों के शृंगों पर ,
भले ही तिरंगा भरपूर लहरायेगा।
खेत-खलिहान में तिरंगा जो न फहराया,
राष्ट्रपर्व कोई हो अधूरा रह जायेगा।
(10) पार क्या लगायेंगे
गायेंगे भितरघातियों की जो प्रशस्ति लोग,
देश में आतंकवादी कैसे मिट पायेंगे।
पायेंगे शरण यदि भेड़ों बीच भेड़िये तो
मेमने मरेंगे और मरते ही जायेंगे।
जायेंगे जहाँ भी वहीं करेंगे विश्वासघात,
ऐसे ही कृतघ्न नाव देश की डुबायेंगे।
देश की डुबायेंगे जो नाव खुद देशवासी,
तो अकेले माझी बेड़ा पार क्या लगायेंगे।
(11) आतंक है
घाटी में आतंक कोने-कोने देश में आतंक,
भूमि-जल-व्योम सब ओर ही आतंक है।
सहमी सुरक्षा देख सहमा है देशवासी,
घूमता आतंकवादी देश में निःशंक है।
शान्ति के कबूतरों को नोचता आतंक-बाज,
आँसुओं से भीगा आज भारती का अंक है।
तब तक गायें क्या स्वाधीनता के गीत हम,
जब तक देश में आतंक का कलंक है।
(12) वंदना में
काव्य का वितान तना, काव्य प्रेमियों के धाम,
डगर-डगर बढ़े, श्रोता चले आते हैं।
भावना के मंदिर में, शारदे विराज रहीं,
मन के कपाट स्वयमेव खुले जाते हैं।
काव्य के प्रसून कर-कंज में लिये हैं कवि,
अम्ब के पदाग्र भेंटने को अकुलाते हैं।
अस्तु वरदायिनी की, अर्चना के हेतु हम,
वंदना में शब्द पुष्प, सादर चढ़ाते है।
(13) नीची रह जायेगी
माटी का ही घट हो या स्वर्ण का कलश भव्य,
मदिरा के पात्र से दुर्गंध ही तो आयेगी।
शब्द के तलाव में डुबाओ कितना भी किन्तु,
झूठ की किताब शव तुल्य उतारायेगी।
अनुबन्ध चूनरी के प्रेम तार टाँकने में,
द्वेष-ग्रंथि आयी तो बुनायी उलझायेगी।
द्वेष की दीवार हो विशाल कितनी भी चाहे,
प्रेम के आकाश से तो नीची रह जायेगी।
(14) चन्द्रवरदाई समझाते हैं
पृथिवी मयंक सूर्य तारे घूमते हैं सारे,
अपनी कला को बार-बार दुहराते हैं।
इतिहास दुहराता अपने को बार-बार,
गौरी पृथिवी के हाथों ढेर किये जाते हैं।
भारत की सीमा पर गौरी ताकने लगा है,
मरने को होते तो सियार गाँव आते हैं।
शर शब्दवेधी छोड़, गौरी का विनाश कर,
पृथिवी को चन्द्रवरदाई समझाते हैं।
(15) जनादेश
विभीषण ले के जनादेश राज दरबार,
गया यह सोच अनाचार को मिटायेंगे।
छल-बल पर पले दशशीश सरकार,
वहाँ सत्य न्याय नीति ध्वज फहरायेंगे।
कहाँ जानता था वहाँ राम का लिया जो नाम,
बन साम्प्रदायिक अछूत कहलायेंगे।
किन्तु जानता है विश्व जनादेश ठुकरा के,
दश शीश भी नहीं बचाये बच पायेंगे।
(16) आतंकवाद
मिलेंगे कभी जो बैठकों में राष्ट्र के प्रधान,
विश्व बंधुता का राग सब मिल गायेंगे।
करेगा आतंक जब क्रूरता महा विनाश,
आधे देश उससे ही मित्रता निभायेंगे।
दूर से तमाशा देखने वाले भी जान लें कि,
कल को आतंक से वे भी न बच पायेंगे।
विश्व से मिटा नहीं समूल जो आतंकवाद,
सपने भविष्य के अधूरे रह जायेंगे।
(17) विश्व जायेगा छला
जलते हमारे घर, देख के लगा न कुछ,
जलजला आ गया जो, देखा अपना जला।
घर को तुम्हारे या हमारे जो जलाने वाला,
नाग वह दूध पी तुम्हारा ही सदा पला।
मारने को एक नाग, दूसरे रहे जो पाल,
मिल के डसेंगे सब, याद रखना भला।
भारत अधीर की जो, पीर समझे नहीं तो,
आतंक के हाथ पूरा, विश्व जायेगा छला।
(18) फूल क्या चढ़ायेंगे – 1
कोसते ही रहने से नेताओं को दिन रात
आप जिम्मेदारियों से बच नहीं पायेंगे,
नेता यदि भृष्ट हैं तो नेताओं को कुर्सियों पे
भेजने वाले भी महा भ्रष्ट कहलायेंगे,
आज के आदर्शवादी पा जायें जो कुर्सी वही
कल गिद्ध जैसे देश नोच-नोच खायेंगे,
काँटे ही उगेंगे जब कलियों की कोख से तो
राष्ट्र देव पर वृक्ष फूल क्या चढ़ायेंगे?
(19) फूल क्या चढ़ायेंगे – 2
कटिया लगा-लगा के बिजली चुराने वाले
जिस गली जाइए अनेक मिल जायेंगे,
छोटे हैं तो छोटे चोर , बड़े हैं तो बड़े चोर
छोटे ही बनेंगे बड़े, मौका जब पायेंगे,
आइने में अपना न चेहरा निहार पाते
वे ही दूसरों को खूब आइना दिखायेंगे,
काँटे ही उगेंगे जब कलियों की कोख से तो
राष्ट्र देव पर वृक्ष फूल क्या चढ़ायेंगे?
(20) फूल क्या चढ़ायेंगे – 3
राष्ट्रवादी हैं सभी परन्तु हो चुनाव जब
जाति धर्म देख-देख बटन दबायेंगे,
जाति-धर्म से बचे तो आज के सिद्धांतवादी
कल चन्द चाँदी के सिक्को में बिक जायेंगे,
बोयेंगे बबूल और चाहेंगे रसीले आम
ऐसे मतदाता नाव देश की डुबायेंगे,
काँटे ही उगेंगे जब कलियों की कोख से तो
राष्ट्र देव पर वृक्ष फूल क्या चढ़ायेंगे?
(21) फूल क्या चढ़ायेंगे – 4
‘मम्मी-डैड’ संतानों को भेजेंगे कान्वेंट स्कूल
नेता अधिकारी या व्यापारी ही बनायेंगे ,
घूस या घोटाला या दहेज़ से तिजोरी भरे
पूत हो कमाऊ यही सपने सजायेंगे ,
शास्त्रीजी, सुभाष, गाँधी, अशफाक़, बिसमिल
जन्म लेना चाहें भी तो कोख कहाँ पायेंगे,
काँटे ही उगेंगे जब कलियों की कोख से तो
राष्ट्र देव पर वृक्ष फूल क्या चढ़ायेंगे?
(22) फूल क्या चढ़ायेंगे – 5
लगती रहेंगी यदि, युवकों की बोलियाँ तो,
शादियों के मंडप नखासे बन जायेंगे।
झूठी शान-शौकत के, ख़्वाब हैं जुआँ-शराब,
हाल जो करेंगे देख, पशु भी लाजायेंगे।
अपने ही पाँव पर, मारते कुल्हाड़ी लोग,
खुद तो डूबेंगे सारे, देश को दुबायेंगे।
काँटे ही उगेंगे जब, कलियों की कोख से तो
राष्ट्र देव पर वृक्ष, फूल क्या चढ़ायेंगे?
3. कलाधर घनाक्षरी
इस छन्द में चार समतुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 31 वर्ण होते है, 16-15 वर्णों पर यति अनिवार्य होती है जबकि 8-8-8-7 वर्णों पर यति उत्तम होती है। इसके प्रवाह पर सम-विषम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसमें सभी वर्णों का मात्राभार निश्चित होता है और इस प्रकार इस छन्द की एक निश्चित मापनी होती है जिसमें 15 गाल के बाद एक गा आता है-
वर्णिक मापनी :
गालगाल गालगाल गालगाल गालगाल,
गालगाल गालगाल गालगाल गालगा।
यह वर्णिक मापनीयुक्त दंडक अथवा वर्णिक साधारण दंडक छन्द है किन्तु इसे पारंपरिक ग्रंथों में मुक्तक दण्डकों में सम्मिलित किया गया है।
यह लय-प्रवाह की दृष्टि से मनहर घनाक्षरी का एक उत्कृष्ट रूप है।
(23) सोचिए
सभ्यता कहाँ चली विचारणीय शोचनीय,
रीतिहीन नीतिहीन शीलहीन, सोचिए।
है न प्रेम, है न त्याग, है न भावना विशेष,
स्वार्थ से मनुष्यता हुई मलीन, सोचिए।
अर्थ-काम के लिए गवाँ रहे अनेक प्राण,
जी रहे अनेक लोभ के अधीन, सोचिए।
सत्य को असत्य सिद्ध जो करें वही मदान्ध,
दे रहे अनेक तर्क हैं नवीन, सोचिए।
(24) लेखकीय धर्म
काव्य के अनेक रूप, हैं सभी बड़े अनूप,
जो जिसे रुचे उसे वही सदा सुनाइए।
गीत, छन्द, गीतिकादि से विभेद हैं अनेक,
जो रुचे उसे सँभाल लेखनी चलाइए।
हास्य, व्यंग, प्रेम, ओज, खोज के कवित्त साध,
कीजिए रसाभिव्यक्ति, गाइए रिझाइए।
भूलिए नहीं परन्तु, एक लेखकीय धर्म,
राष्ट्र-भावनानुरक्ति, व्यक्ति में जगाइए।
(25) दीप-सा जले
देश के लिए मरे मिटे अनेक शूर वीर,
राजनीति में सपूत वे सभी गये छले।
कर्णधार आज के मचा रहे विचित्र लूट,
भूल राष्ट्रधर्म लूट में सभी मिले गले।
भाव देश का न लेश, कुर्सियाँ बनी अभीष्ट,
राजनीति राजधर्म रौंदती पगों तले।
कौन है सपूत अग्रदूत जो रखे न स्वार्थ,
त्यागमूर्ति जो बने अखण्ड दीप-सा जले।
4 जनहरण घनाक्षरी
इस छन्द में चार समतुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 31 वर्ण होते है, 16-15 वर्णों पर यति अनिवार्य होती है जबकि 8-8-8-7 वर्णों पर यति उत्तम होती है। इसमें विषम-सम-विषम का प्रयोग वर्जित होता है। इसमें सभी वर्णों का मात्राभार निश्चित होता है, इसके चरण की मापनी निम्न लिखित प्रकार है जिसमें 30 लघु के बाद एक गुरु आता है-
वर्णिक मापनी :
लललल लललल लललल लललल,
लललल लललल लललल ललगा।
यह वर्णिक मापनीयुक्त दंडक अथवा वर्णिक साधारण दंडक छन्द है किन्तु इसे पारंपरिक ग्रंथों में मुक्तक दण्डकों में सम्मिलित किया गया है।
इसके अंतिम गा के स्थान पर लल प्रयोग करने से एक प्रकार का डमरू घनाक्षरी छन्द बन जाता है। छन्द 26 और 50 की तुलना करने से यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है।
(26) निखर तू
विकल-विकल मन, सुनयनि तुझबिन,
प्रकट मनस पर, सँवर निखर तू।
हृदय पटल पर, प्रतिपल बस कर,
सुखकर सुखकर, अनुभव भर तू।
सँभल-सँभल कर, थिरक-थिरक कर,
लय-गति वश कर, पग-पग धर तू।
रुनझुन-रुनझुन, छनन छनन छन,
झनन झनन झन, पल-पल कर तू।
5 रूप घनाक्षरी
इस छन्द में चार समतुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 32 वर्ण होते है, 16-16 वर्णों पर यति अनिवार्य होती है जबकि 8-8-8-8 वर्णों पर यति उत्तम होती है, अंत में गाल अनिवार्य होता है, 8 वर्णों के पदों में विषम-सम-विषम प्रयोग वर्जित होता है।
यह वर्णिक मापनीमुक्त दंडक अथवा वर्णिक मुक्तक दंडक छन्द है।
मनहर के बाद यह घनाक्षरी का सवसे अधिक प्रचलित भेद है।
मनहर घनाक्षरी के चरणान्त में एक लघु बढ़ा देने से रूप घनाक्षरी बन जाती है।
(27) पुरस्कार
लिखते रहे हैं और, लिखते रहेंगे सदा,
उर की संवेदना को, शब्द-शब्द में उतार।
एक पारखी की वाह, मेरे लिए अनमोल,
व्यर्थ वाह-वाह जो अनाड़ी करते हज़ार।
व्यर्थ वह कृति जिसे लोक में मिले न मान,
पदकों-उपाधियों के लगे हों भले अम्बार।
अनजान ओठों पर रचना थिरक जाये,
विश्व में न इससे बड़ा है कोई पुरस्कार।
(28) चाँय-चाँय
कवि कण्ठ कूजते हैं छंदलोक में अमंद,
लगती अछन्दलोक में विचित्र भाँय-भाँय।
जानते हो, क्योंकि मृदु छन्द की पुकार सुन,
अम्बर से अम्ब अविलम्ब चले पाँय-पाँय।
पढूँ हास्य करुणा शृंगार शान्ति के कवित्त,
चाहे करूँ वीर-रौद्र रचना की धाँय-धाँय।
कविता रसस्विनी हो, छन्द अनुगामिनी हो,
छन्द के विरोधियों को करने दो चाँय-चाँय।
(29) नेता घूमते लबार
सेवा नहीं मेवा हित, लोग बनते हैं नेता,
करते घोटाला घोर, अनाचार कदाचार।
त्याग जनसेवा न्याय, इनकी न बात करो,
राजनीति क्रूर छद्म, चोरी लूट का व्यापार।
धनबल भुजबल, बिना हो न राजनीति,
न्याय को खरीद लेना, नेताओं का अधिकार।
नेताओं में ‘नेता जी’ तो, एक ही थे, चले गये,
अब तो गली-गली में, नेता घूमते लबार।
(30) पर्यावरण
कचरा, पराली, पॉलिथीन, बीन घास फूस,
सोचे समझे बिना ही, रहते जलाते लोग।
बूढ़ी हुई डीजल की, गाड़ी, जेनरेटरों को,
मिलों को चलाते काले, धुएँ को उड़ाते लोग।
भरता वातावरण, विषैले धुएँ से जब,
आतिशबाजी के साथ, पटाखे दगाते लोग।
काश! पाते समझ प्रदूषण की त्रासदी को,
जीवन बचाते, पर्यावरण बचाते लोग।
(31) रावणों की भरमार
मार-काट हो रही है, सीधे सुजनों की आज,
दुर्जन निर्द्वंद मुक्त, रहे कर अत्याचार।
अत्याचार व्यभिचार, करते डराते दुष्ट,
बोलने वाले को देते, घाट मौत के उतार।
तार-तार हो रही है, सीताओं की लाज आज,
साधुवेश में असाधु, छलते हैं बार-बार।
बार-बार मरते है, बार -बार जन्मते हैं,
गली-गली घर-घर, रावणों की भरमार।
(32) जलायें ज्योति
अमावस्या की है रात, तम करता है घात,
आओ मिलजुल तात, जग में जलायें ज्योति।
पीड़ा जिनकी अकथ, पड़े हारे थके श्लथ,
जिनको दिखे न पथ, उनको दिखायें ज्योति।
मिटा दे जो अत्याचार, करे दुष्टों का संहार,
जला दे सारे विकार, ऐसी दहकायें ज्योति।
हरे जग का अज्ञान, सत्य का कराये भान,
ऐसी एक दीप्तिमान, उर में जगायें ज्योति।
(33) तार-तार
बचपन के वे दिन, याद आते छिन-छिन,
लड़ते थे बात बिन, भागते थे मार-मार।
कभी-कभी रूठ जाते, फिर नहीं हाथ आते,
खूब भिड़ते-भिड़ाते, झेंपते न हार-हार।
कट्टी कर लेते कभी, ऐंठ चल देते कभी,
बन के चहेते कभी, मिलते थे बार-बार।
अब चारों ओर घातें, किससे लड़ायें बातें,
आँसुओं की बरसातें, खुशियाँ हैं तार-तार।
(34) निराधार
हार जाता तन जब, हार जाता मन तब,
ऊँची-ऊँची बातें सब, लगती हैं निराधार।
निराधार सारी बात, दिन को कहे जो रात,
करे जो बुढ़ापा घात, कटते न दिन चार।
चार मुँह में न दाँत, काम करती न आँत,
तन सूख हुआ ताँत, साँसें लगती हैं भार।
भार लगते हैं मीत, बोलते जो विपरीत,
मन के जीते है जीत, मन के हारे है हार।
(35) जीवन के दिन चार
जीवन के दिन चार, कर लो सभी से प्यार,
रहो मत मन मार, लूटो खुशियाँ अपार।
खुशियाँ अपार वहाँ, प्यार पलता है जहाँ,
दुख का है नाम कहाँ, जहाँ बस प्यार-प्यार।
प्यार करो दिन रात, ऐसा कुछ करो तात,
खिल जायें जलजात, एक-दो नहीं, हजार।
हजार बिछे हों शूल, तुम बिखराओ फूल,
प्यार करो सब भूल, जीवन के दिन चार।
6 जलहरण/हरिहरण घनाक्षरी
इस छन्द में चार समतुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 32 वर्ण होते है, 16-16 वर्णों पर यति अनिवार्य होती है जबकि 8-8-8-8 वर्णों पर यति और अन्त्यानुप्रास उत्तम होता है, अंत में लल अनिवार्य होता है, 8 वर्णों के पदों में विषम-सम-विषम प्रयोग वर्जित होता है।
यह वर्णिक मापनीमुक्त दंडक अथवा वर्णिक मुक्तक दंडक छन्द है।
प्रस्तुत उदाहरणों के छन्द 34, 35, 36 और 37 में आतंरिक अन्त्यानुप्रास का प्रयोग किया गया है।
कुछ रचनाकार जलहरण के अंत में लगा भी प्रयोग करते हैं लेकिन तब पढने में उस लगा का उच्चारण लल ही होता है।
कुछ रचनाकार 8-8-8 वर्णों पर भी लल अनिवार्य मानते हैं, जैसाकि प्रथम उदाहरण में देखा जा सकता है लेकिन इस लेखक की दृष्टि में इसे अनिवार्य न मान कर उत्तम मानना ही उचित है।
(36) वीणावादिनी के सुत
वीणावादिनी के सुत, मिलते नशे में धुत,
दुःख लगता बहुत, देख उनका पतन।
देव लगें मंच पर, क्षुद्र मंच से उतर,
नाच नाचते उघर, देख होती है चिढ़न।
लड़ते पैसों के हित, वासना अपरिमित,
रहें रूप के क्षुधित, करें मर्यादा-हनन।
जो हैं सीधे सच्चे कवि, रखते विमल छवि,
वे तो हैं प्रणम्य रवि, मेरा उनको नमन।
(37) आनंदकर
रिमझिम जलवृष्टि, रचती विचित्र सृष्टि,
जिसकी जैसी हो दृष्टि, आती वैसा रूप धर।
लगी न दिहाड़ी कहीं, चूल्हा भी जला है नहीं,
कहीं पकवान रहीं, तल नारियाँ सुघर।
कहीं चले मनुहार, कहीं है विरह-ज्वार,
कहीं पर है बहार, कहीं जियें मर-मर।
किन्तु जब रस-वृष्टि, करती है काव्य-सृष्टि,
होती सदा दिव्य-दृष्टि, बनती आनंदकर।
(38) नित लय भर-भर
समय की बजे ढोल, पल-पल अनमोल,
पग रख तोल-तोल, नृत्य कर ले सुघर।
ताल से मिला दे ताल, लय पर पग ढाल,
ठुमुक-ठुमुक चाल, भर सरगम पर।
कण-कण नृत्य करे, त्रिभुवन ताल भरे,
लय-ताल दुख हरे, सुखमय जग कर।
सदा लय में आनन्द, लय रख ले अमंद,
जीवन के लिख छन्द, नित लय भर-भर।
(39) जीवन रतन धन
सत्य के पुजारी कहाँ, सत्य-व्रत-धारी कहाँ,
सत्य सदाचारी कहाँ, कहाँ गये साधुजन।
लगा सत्य पर ताला, झूठ का है बोलबाला,
तन श्वेत मन काला, काग चले हंस बन।
माथे पर छाप धर्म, कर निंदनीय कर्म,
त्याग कर लाज-शर्म, धूर्त फिरें बनठन।
सत्य कहें हम किसे, अपनायें हम जिसे,
इसी द्वंद्व बीच पिसे, जीवन रतन-धन।
(40) राग छेड़िए तो
राग छेड़िए तो ध्यान, इतना बना रहे कि,
जाग-जाग बावरा पड़ोसी बन जाये मत।
व्यंग्य कीजिये जो तो न, आँख हो किसी की नम,
कीजिये प्रकाश भी तो, आँख चौंधियाये मत।
उपदेश कीजिये तो, दर्पण को देख-देख,
बिम्ब कहीं अपने पे, ऊँगली उठाये मत।
कीजिये जो निर्माण तो, पत्थरों को पाटने में,
हृदयों के बीच कोई, खाई गहराये मत।
7 कृपाण घनाक्षरी
इस छन्द में चार समतुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 32 वर्ण होते है, 8-8-8-8 वर्णों पर यति और अन्त्यानुप्रास अनिवार्य होता है, चरणान्त में गाल अनिवार्य होता है, 8 वर्णों के पदों में विषम-सम-विषम प्रयोग वर्जित होता है।
यह वर्णिक मापनीमुक्त दंडक अथवा वर्णिक मुक्तक दंडक छन्द है।
यह छन्द वीर रस के लिए अधिक उपयुक्त माना जाता है।
छन्द 37 और 41 की तुलना करने से जलहरण और कृपाण का परस्पर सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है।
रूप घनाक्षरी में यदि 8-8-8 पर यति और अन्त्यानुप्रास अनिवार्य कर दिया जाये तो वह कृपाण घनाक्षरी हो जाती है| इस प्रकार प्रत्येक रूप घनाक्षरी कृपाण घनाक्षरी नहीं होती है, किन्तु प्रत्येक कृपाण घनाक्षरी रूप घनाक्षरी भी होती है|
(41) रिमझिम
रिमझिम जलवृष्टि, रचती विचित्र सृष्टि,
जिसकी जैसी हो दृष्टि, रूप वैसा ले सँवार।
लगी न दिहाड़ी कहीं, चूल्हा भी जला है नहीं,
कहीं पकवान रहीं, तल नारियाँ अपार।
कहीं चले मनुहार, कहीं है विरह-ज्वार,
कहीं पर है बहार, कहीं जियें मन मार।
किन्तु जब रस-वृष्टि, करती है काव्य-सृष्टि,
होती सदा दिव्य-दृष्टि, हरती है अंधकार।
(42) शब्द
शिल्प का रहे विधान, भाव का ढहे मकान,
अक्षरों के खींच कान, रचिए न छंद मीत।
उर में हो दुष्चरित्र, छंद में आदर्श चित्र,
छलिए न छंद मित्र, याचना यही विनीत।
शब्द उर से उभार, जो जिया उसे उतार,
छंद रचिए निखार, पढ़िये सदा सप्रीत।
शब्द हैं लजीले फूल, शब्द हैं नुकीले शूल,
शब्द विषयानुकूल, लेते हैं हृदय जीत।
(43) मित्र
अपना ह्रदय खोल, देते सदा रस घोल,
मित्र होते अनमोल, रखते हैं अपनत्व।
नाते जब मुख मोड़, देते हैं ह्रदय तोड़,
मित्र तब उर जोड़, भरते हैं मधुरत्व।
सुदामा के साथ श्याम, सुग्रीव के साथ राम,
कर मित्रता ललाम, गये समझा महत्व।
कभी रूठ जाये मित्र, प्रेम का लगाओ इत्र,
नाता प्रेम का पवित्र, दे दो इसे अमरत्व।
8. लगान्त विजया घनाक्षरी
विजया घनाक्षरी दो प्रकार की होती है- एक लगान्त जिसके अंत में लगा आता है और दूसरी नगणान्त जिसके अंत में ललल या नगण आता है।
लगान्त विजया घनाक्षरी में चार सम तुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 32 वर्ण होते हैं, 8-8-8-8 वर्णों पर यति अनिवार्य होती है, 8-8-8-8 पर लगा आनिवार्य होता है, 8-8-8 पर अंत्यानुप्रास उत्तम होता है।
इसमें 8 वर्णों के पदों में विषम-सम-विषम प्रयोग भी मान्य होता है। इस विशेषता की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए अग्रलिखित उदाहरणों में विषम-सम-विषम का प्रयोग प्रचुरता से किया गया है।
यह वर्णिक मापनीमुक्त दंडक अथवा वर्णिक मुक्तक दंडक छन्द है।
(44) भामिनी
नखत दिखे जागते, सपन दिखे भागते,
मदिर मधु पागते, निकल रही यामिनी।
बादल काले छा गये, युगल पास आ गये,
अनाड़ी मात खा गये, दमक गयी दामिनी।
पवन चली झूमती, मदिर मत्त घूमती,
दिशाएँ दस चूमती, अनोखी गजगामिनी।
न भाये वह यामिनी, न भाये वह दामिनी,
न भाये गजगामिनी, जो साथ नहीं भामिनी।
(45) सत्य साधना
सभी में प्रभु-वास है, सदैव आस-पास है,
उसी का जग भास है, रखो न रंच वासना।
कुशाग्र बनो ज्ञान में, एकाग्र रहो ध्यान में,
उदार सदा दान में, रखो न क्षुद्र कामना।
प्रवीर तम चीरता, सटीक यही वीरता,
धारण करो धीरता, बढ़ाओ प्रेम भावना।
न रंच दंभ पालना, सदैव क्रोध त्यागना,
लालच लोभ छोड़ना, यही है सत्य साधना।
(46) जगाओ स्वाभिमान को
रखो न उर हीनता, कभी न पालो दीनता,
बढ़ाओ प्रभु-लीनता, जगाओ स्वाभिमान को।
सभी के प्रति प्यार हो, महान सुविचार हो,
ह्रदय रस-धार हो, बसाओ रसखान को।
अप्रिय नहीं बोलना, वचन रस घोलना,
पहन कर डोलना, विनय-परिधान को।
विकास-मन्त्र को पढ़ो, भविष्य देश का गढ़ो,
जगाने युग को बढ़ो, जगाओ आत्मज्ञान को।
9. नगणान्त विजया घनाक्षरी
विजया घनाक्षरी दो प्रकार की होती है- एक लगान्त जिसके अंत में लगा आता है और दूसरी नगणान्त जिसके अंत में ललल या नगण आता है।
नगणान्त विजया घनाक्षरी में चार सम तुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 32 वर्ण होते हैं, 8-8-8-8 पर यति अनिवार्य होती है, 8-8-8-8 पर ललल अथवा नगण आनिवार्य होता है, 8-8-8 पर अंत्यानुप्रास उत्तम होता है।
इसमें 8 वर्णों के पदों में सम-विषम-विषम प्रयोग अनिवार्य होता है। यह एक विशेष बात है, इसलिए अग्रलिखित उदाहरणों में ध्यान देने योग्य है।
यह वर्णिक मापनीमुक्त दंडक अथवा वर्णिक मुक्तक दंडक छन्द है।
(47) नमन
नीति पर जो अटल, रहे धर्म से अचल,
सदा सेवा में चपल, करे दंभ का शमन।
चले सत्य की डगर, धरे सत्य ही अधर,
करे सत्य को मुखर, होता उसी का दमन।
मन रहता विकल, क्रोध पड़ता उबल,
उर जलती अनल, धैर्य करता गमन ।
उर वेदना अकथ, है न अंत ही न अथ,
चले फिर भी सुपथ, मेरा उसको नमन।
(48) झलक
करो व्यर्थ में न क्षय, अनमोल है समय,
जो है सर्वदा अजय, जो है चलता अथक।
रहो काम से अलग, रहो सर्वदा सजग,
होती कामिनी मदिर, जैसे मद्य का चषक।
शील सौम्यता सुखद, करो रंच भी न मद,
बोल बोलना अपद, जाता सबको खटक।
नहीं व्यर्थ में सुजन, करें ज्ञान का वमन,
जब निकलें वचन, ज्ञान जाता ही झलक।
(49) ज्योति
ज्योति-पर्व के समय, दीप जलते अभय,
लोग खोल के ह्रदय, पर्व मनाते मगन।
घर गये हैं निखर, लोग लगते सुघर,
नर-नारियाँ सँवर, मिल करते यजन।
चलो सबसे प्रथम, प्रण कर लें शुभम,
बचे ज्योति से न तम, हो न ज्योति से चुभन।
ज्योति ज्योति का मिलन, करे प्रीति को सघन,
उसी ज्योति को नमन, मिल करते सुजन।
10. समात्रिक डमरू घनाक्षरी
डमरू घनाक्षरी छन्द दो रूपों में रचा जाता है- (1) समात्रिक डमरू जिसमें सभी 32 वर्ण लघु होते हैं जो इ, उ, ऋ की हृस्व मात्राओं से युक्त भी हो सकते हैं (ख) अमात्रिक डमरू जिसमें सभी 32 वर्ण लघु होते हैं जो मात्राओं से मुक्त होते हैं।
समात्रिक डमरू घनाक्षरी छन्द में चार समतुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 32 वर्ण होते है, 16-16 वर्णों पर यति अनिवार्य होती है जबकि 8-8-8-8 वर्णों पर यति उत्तम होती है। इसमें विषम-सम-विषम का प्रयोग वर्जित होता है। इसमें सभी वर्णों का मात्राभार निश्चित होता है, इसके चरण की मापनी निम्न लिखित प्रकार है जिसमें सभी 32 वर्ण लघु होते हैं जो समात्रिक भी हो सकते हैं-
वर्णिक मापनी :
लललल लललल लललल लललल,
लललल लललल लललल लललल।
यह वर्णिक मापनीयुक्त दंडक अथवा वर्णिक साधारण दंडक छन्द है किन्तु इसे पारंपरिक ग्रंथों में मुक्तक दण्डकों में सम्मिलित किया गया है।
(50) निखर प्रिय
विकल-विकल मन, सुनयनि तुझ बिन,
प्रकट मनस पर, सँवर निखर प्रिय।
हृदय पटल पर, प्रतिपल बस कर,
सुखकर सुखकर, अनुभव भर प्रिय।
सँभल-सँभल कर, थिरक-थिरक कर,
लय-गति वश कर, पग-पग धर प्रिय।
रुनझुन- रुनझुन, छनन छनन छन,
झनन झनन झन, पल-पल कर प्रिय।
11. अमात्रिक डमरू घनाक्षरी
डमरू घनाक्षरी छन्द दो रूपों में रचा जाता है- (1) समात्रिक डमरू जिसमें सभी 32 वर्ण लघु होते हैं जो इ, उ, ऋ की हृस्व मात्राओं से युक्त हो सकते हैं (ख) अमात्रिक डमरू जिसमें सभी 32 वर्ण लघु होते हैं जो इ, उ, ऋ की हृस्व मात्राओं से मुक्त होते हैं।
अमात्रिक डमरू घनाक्षरी छन्द में चार समतुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 32 वर्ण होते है, 16-16 वर्णों पर यति अनिवार्य होती है जबकि 8-8-8-8 वर्णों पर यति उत्तम होती है। इसमें विषम-सम-विषम का प्रयोग वर्जित होता है। इसमें सभी वर्णों का मात्राभार निश्चित होता है, इसके चरण की मापनी निम्न लिखित प्रकार है जिसमें सभी 32 वर्ण लघु होते हैं जो अमात्रिक होते हैं-
वर्णिक मापनी :
लललल लललल लललल लललल,
लललल लललल लललल लललल।
यह वर्णिक मापनीयुक्त दंडक अथवा वर्णिक साधारण दंडक छन्द है किन्तु इसे पारंपरिक ग्रंथों में मुक्तक दण्डकों में सम्मिलित किया गया है।
(51) बन कर सहचर
सरस सरस कह, वचन नमन कर,
तरल-तरल मन, पल-पल रख कर।
सनन सनन सन, मगन पवन सम,
रसमय सरगम, स्वर-स्वर भर-भर।
तपन न रख मन, जलन न रख मन,
तमस न रख मन, रसमय कर स्वर।
अटल अभय बन, सत-पथ पर चल,
कर-कर गह कर, बन कर सहचर।
(52) वश कर जन-जन
नव लय नव स्वर, नव रस घट भर,
करतल-स्वर गत, मद मत भर मन।
सहज सरल कर, कहन रहन सब,
तपन सहन कर, असहज मत बन।
पग-पग तमचर, डट कर तम हर,
डगर-डगर चल, तज कर भटकन।
कल-कल जल सम, भर सरगम-स्वर,
अकड़ शमन कर, वश कर जन-जन।
(53) झनन झनन झन
चल हट नटखट, शठ मत कर हठ,
समझ वचन वर, असमझ मत बन।
तरल पवन सम, प्रबल अनल सम,
महक कमल सम, चल मत तन-तन।
बन जल-जल कर, अमर शलभ सम,
प्रणय-डगर पर, मत बन अड़चन।
अधर-अधर पर, ठहर-ठहर कर,
कर सरगम भर, झनन-झनन-झन।
12. देव घनाक्षरी
इस छन्द में चार समतुकान्त चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 33 वर्ण होते है, 8-8-8-9 वर्णों पर यति अनिवार्य होती है, चरणान्त में ललल अथवा नगण अनिवार्य होता है, 8 वर्णों के पदों में विषम-सम-विषम प्रयोग वर्जित होता है।
इसके चरणान्त में ललल की पुनरावृत्ति से विशेष लालित्य उत्पन्न होता है।
यह वर्णिक मापनीमुक्त दंडक अथवा वर्णिक मुक्तक दंडक छन्द है।
(54) मचल-मचल
मन में उठी उमंग, झूम उठा अंग-अंग,
मन हो गया मलंग, चलता उछल-उछल।
प्रीति की डगर पर, पहला चरण धर,
होता बड़ा ही दूभर, चलना सँभल-सँभल।
लोग जो सयाने बड़े, करते विरोध अड़े,
बोलते वचन कड़े, पड़ते उबल-उबल।
पड़े न दिखाई कुछ, पड़े न सुनाई कुछ,
उर है हवाई कुछ, उठता मचल-मचल।
(55) वेदना
पालने को परिवार, श्रम करता अपार,
मानता नहीं है हार, घूमता नगर-नगर।
लूटते हैं धनवान, लुटता नियति मान,
श्रमिक असावधान, जाता है बिखर-बिखर।
तन शीत सहता है, धूप में दहकता है,
कुछ नहीं कहता है, रहता सिहर-सिहर।
पलती जो झुग्गियों में, सूखती अंतड़ियों में,
जाती वह झुर्रियों में, वेदना उभर-उभर।
(56) मगन-मगन
शारदा की अर्चना में, साहित्य की सर्जना में,
वाणी की आराधना में, मन है मगन-मगन।
उठा भावना का ज्वार, नव रस का संचार,
रचा शब्द का संसार, काव्य में सघन-सघन।
उतर के आता छन्द, बिखराता मकरंद.
नाचता फिरे सानन्द, उर के भवन-भवन।
साधना में रम जाता, मन हो मगन गाता,
केवल है सुन पाता, वीणा की झनन-झनन।
– आचार्य ओम नीरव
संपर्क : 8499034545