घटते पाठक, बढ़ती चिंता
चिंतन
घटते पाठक, बढ़ती चिंता
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यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि शिक्षा और साहित्य के विस्तार के बावजूद पाठक वर्ग का अभाव बढ़ता जा रहा है,जो कि चिंता का विषय बनता जा रहा है।यह कैसा जूनून है कि हम लिखते जा रहे हैं, औरों से अपने सृजन को पढ़कर प्रतिक्रिया भी चाहते हैं।परंतु अफसोस कि हम औरों को पढ़ना ही नहीं चाहते।आखिर हम जो सोचते हैं,वैसा ही कुछ और लोग भी तो सोचते हैं।तभी भी रचनकार अधिक और प्रतिक्रिया देने वाले मात्र गिने चुने ही होते प्रायः दिख जाते हैं। जो हमें ही आइना दिखाते प्रतीत होते हैं। हो भी क्यों न?बढ़ते आधुनिकीकरण ने हर क्षेत्र में सकारात्मक/नकारात्मक असर डाला है। फिर भला सृजन,पाठन कैसे अछूता रह सकता है।
आज जब सृजन क्षमता का विकास अत्यधिक तेजी से हो रहा है,नये सृजनकार तेजी से बढ़ रहे हैं,विशेष कर कोरोना काल में साहित्य के क्षेत्र में तो नव साहित्यकारों का सैलाब सा आ गया है। अच्छा भी है,क्योंकि सोशल मीडिया के इस युग में विभिन्न सोशल मीडियाई साहित्यिक मंचों ने इस दिशा में बड़ा योगदान दिया है।जिसके कारण बहुत सी विलक्षण प्रतिभाएं भी प्रकाश में आ रही हैं।अभूतपूर्व सृजन भी प्रकाश में अपनी चमक बिखेर रहा है।
परंतु अफसोस भी है कि बढ़ती तकनीकी सुविधाओं के बीच जहां पल भर में लगभग हर तरह की जानकारी मिलना संभव हो रहा है,वहीं बौद्धिक रुप से क्षरण भी हो रहा है,क्योंकि पाठन में रुचि तेजी से घटती जा रही है जिसका सीधा असर बौद्धिक क्षमता और याददाश्त पर साफ दिख रहा है। हर क्षेत्र की तरह पाठन क्षेत्र भी शार्टकट की मार से बिखर रहा है।हमारा ध्यान ज्ञानार्जन के बजाय जानकारी जुटाकर मात्र अधिकाधिक सृजन पर लगा रहता है।जिसका दुष्परिणाम भी दिखता है,कि बहुतेरे अनौचित्यपूर्ण सृजन से भंडारण भरता जा रहा है,जो लाभदायक नहीं है, मात्र प्रतियोगिता भर का सृजन बन जाता है। इसके लिए बहुतेरे विभिन्न मंचों द्वारा हो रही उद्देश्य विहीन और अविवेकपूर्ण प्रतियोगिता और बिना सही अर्थों/औचित्य को महसूस किये सम्मान पत्रों के अविवेकी वितरण से भी हो रहा है। विशेषरूप से नयी पीढ़ी इसका शिकार भी अधिक हो रही है।इसके लिए हम वरिष्ठों और स्थापितों के रवैये को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। क्योंकि वे भी कहीं न कहीं इस भेड़चाल में शामिल होते जा रहे हैं।जिस कारण जहां नयी पीढ़ी सीखने पढ़ने से भाग रही तो,सिखाने, मार्गदर्शन देने वाले भी बाईपास अपनाने लगे हैं।हालांकि इसके लिए नयी पीढ़ी में अपनी श्रेष्ठता, हम भी क्या कम योग्य हैं,का अहम भी बड़ा कारण है।बहुत बार तो आपको अपने सुधारात्मक और ज्ञानार्जन कराने का रवैया आपको अपमानित भी कराता है।इसके अतिरिक्त हम सभी अपने को मशीन समझने लगे हैं।बस दौड़ते रहना अर्थात लिखते जाना है,मन,विचारों, चिंतन से कम जबरदस्ती अधिक।सृजन का स्तर कुछ भी हो बस लिखते और अपने सृजन की संख्या बढ़ाते जाने से ही मतलब है।
हम सब में पठन/पाठन के प्रति घटती रुचि के बहुतेरे कारण हैं ,जिसका दुष्प्रभाव दिखने भी लगा है। हमारी याददाश्त तकनीक भरोसे हो रही है,सृजन का स्तर भी अपेक्षाकृत कम प्रभावी हो रहा है,कनिष्ठ वरिष्ठ की मर्यादा दम तोड़ रही है। सीखने सिखाने का माहौल खो रहा है।जो कि भविष्य के लिए बहुत गम्भीर होने का इशारा भी कर रहा है।अब समय आ गया है कि हम सब चेत जायें,अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब हम सारगर्भित ज्ञान से खोखले होकर तकनीक के गुलाम भर बनकर रह जायेंगे और हमारे पठन,पाठन,अध्ययन और याददाश्त का तो ऊपर वाला ही मालिक ही रहेगा।
निश्चित मानिए कि यदि हम अभी से इसके दुष्परिणामों से बचाव कि मार्ग नहीं तलाशते तो हम आप शिकार होने से भी बच नहीं सकते और अगली पीढ़ी के कोपभाजन से भी। और तो और यदि यह क्रम जारी रहा तो निकट भविष्य में यदि हम आये दिन अपने घर का रास्ता भूलने लगें, तो को कोई अतिशयोक्ति न होगा।
अंत में सिर्फ यही कहा जा सकता है कवि/कवयित्रियों/साहित्यकारों की संख्या जितनी तेजी से बढ़ रही है,पाठकों की संख्या उतनी ही तेजी से घट रही है।जो दुखदायी कम चिंतनीय अधिक है।
?सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उ.प्र.