गज़ल
जी चाहता है खुलकर रोये पर ना जाने क्यों,
बिना बरसे ही आंखों से घटाएँ लौट आती है।
महकती गुनगुनाती हैं हवाएं मुझे लगता है,
तेरे जिस्म से टकराकर हवाएं लौट आती है।।
महका जाती है तेरे जिस्म की ये खुशबू ऐसे,
जैसे बीती हुई वो सब सदाए लौट आती हैं।
तेरे जाने से हर तरफ मुझे वीरान लगता है,
तेरे आने से खुशियों की बहारें लौट आती हैं।
तेरे बिना तपता है ये फैला हुआ सा मरुस्थल,
तेरे आने से सावन की फ़ुहारें लौट आती है।
गम ओर उलझनों से थक सी गयी है जिंदगी,
तेरे साथ खुशियों की ये कतारें लौट आती हैं।
जब भी मैं बहुत तन्हा से महसूस करती हूं,
अदब से तेरी यादों की अदाए लौट आती हैं।
तेरे जिस्म से टकराकर हवाए लौट आती है।।
“सुषमा मलिक”