ग्रीष्म ऋतु
गीत
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ग्रीष्म ऋतु
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लाल गाल रंग रही हवाएं, खेलें जैसे फाग रे ।
नहीं सुहाती गर्मी की ऋतु, बरसे नभ से आग रे ।।
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भोर हुए यों लगे सूर्य ने, जैसे तेवर हों ताने ,
ज्यों-ज्यों ऊंचे उठें लगें, अंबर से शोले बरसाने ,
पड़ें थपेड़े लू के सूखे , मुंह से निकलें झाग रे ।
नहीं सुहाती गर्मी की ऋतु ,बरसे नभ से आग रेे ।। १
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तिरछी नजरें करे दिवाकर , चुभें बदन पर शूलों सी ,
तलवे जलें पांव के खुशबू , खोई कोमल फूलों की ,
अस्त-व्यस्त जीवन के भूले , जोड़ घटाना भाग रे ।
नहीं सुहाती गर्मी की ऋतु , बरसे नभ से आग रे ।।२
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वस्त्र न भाते तन पर बहता , सर से पांव पसीना है ,
भूख न लगती प्यास सताए, मुश्किल होता जीना है ,
नींद ना आए करवट बदले , बीते रैना जाग रे ।
नहीं सुहाती गर्मी की ऋतु, बरसे नभ से आग रे ।।३
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ठंडी ब्यार कहां पर खोई ,जो तन को सरसाती थी ,
सर्द रात में गर्म रजाई , मन को बहुत लुभाती थी ,
छांव न मिलती कहीं शहर में, नंगे सर ना पाग रे ।
नहीं सुहाती गर्मी की ऋतु, बरसे नभ से आग रे ।।४
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तरबूजे, खरबूजे, ककड़ी ,मौसम लीची आमों का ,
गुड़धानी, सतुआ को भूले ,चलन बढ़ा है जामों का ,
श्वेत चदरिया पर हों जैसे , लगे हुए कुछ दाग रे ।
नहीं सुहाती गर्मी की ऋतु , बरसे नभ से आग रे ।।५
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-महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
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