गोल चश्मा और लाठी…
गोल चश्मा और लाठी…
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गोल चश्मा और लाठी…
सारी दुनियाँ बल खाती।
पर कहां था वो जज्बा ,
जो मन की दूरियाँ मिटाती ।
घर का मुखिया यदि ,
हो जाए पक्षपाती ।
तो संग रहना दिलों में ,
कब तक झिलमिलाती ।
घर टूटा था अपना जब,
मन में नफ़रत बढ़ी थी।
दिलों में खालिश चुभन ,
लहू पर भारी परी थी।
साथ रखने की ख्वाहिश में,
हर पल होता था रोदन ।
पर हकीकत में वो ,
एक था अरण्यरोदन।
सामर्थ्य होता यदि उसमें तो ,
धारा का रुख भी मुड़ जाता।
बीच मझधार में यूँ ही न फिर ,
हाथों से पतवार छूटता।
बिगुल बजता स्वदेशी ,
वो तो करता खिलाफत ।
सब जन करते बगावत ,
वो फिर करता अदावत।
चुल्हा अपना बुझा था ,
पर वो था गाता तराने ।
जाता पड़ोसी के घर में ,
यूँ ही दीपक जलाने ।
वो तो लोहे का इक तन था ,
जिसमें शक्ति प्रचंड था ।
जिसनें भुजाओं के बल पे ,
अपनी सीमा बढ़ा दी ।
गिरिवर शिखर सम उन्नत कपाल में,
दूरदृष्टि युक्त चक्षु विराट था।
ज्वालामुखी सा धधकता तन-बदन ,
जिसे देख शत्रु थर्राता था ।
एक सूत्र में बांधकर दिलों को ,
उसने ऐसा आंगन सजाया।
रियासतों में बिखरे भारत को ,
पलभर में ही अपना बनाया ।
गोल चश्में की बातें ,
जग में यूँ ही निराली।
राम मुँह में बसता था ,
जनता भी भोली-भाली।
गोल चश्में की मति जो ,
बन गई थी आत्मघाती।
शीशा टूटा दर्द देकर ,
अपने पत्थर को थाती।
गोल चश्मा और लाठी…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०८ /०१ / २०२२
माह-पौष, शुक्ल पक्ष ,षष्ठी, शनिवार
विक्रम संवत २०७८
मोबाइल न. – 8757227201