गोपी एवं श्रृंगार छंद (होली)
सुकून की कविता
श्रृंगार गोपी मिक्चर
×××××××××
श्रृंगार
मित्र ने भेजा है संदेश ।
नहीं है मिथ्या इसमें लेश।।
तुम्हारे जब रहता हूँ पास।
अलग ही होता है अहसास।
बड़ा ही मिलता मुझे सुकून।
और मानों बढ़ जाता खून।
मिले हो गये हमें दो साल।।
बिगाड़ा कोरोना ने हाल ।।
गोपी
इसी संडे को आऊँगा ।
वहीं त्यौहार मनाऊँगा।
याद आ रही तुम्हारी है।
खेलना रँग पिचकारी है।
श्रृंगार
किया ना मैंने तनिक विलंब ।
दिया है उत्तर जैसे खंब ।।
तुम्हारी बात मित्र है सही।
अभी तकवही परिस्थिति रही।
श्रृंगार
मगर अब भारी गड़बड़ हुआ।
अचानक उड़ा हाथ का सुआ।
रखा घर पहले खूब सुकून ।
मगर अब बदल गया मजमून।
गईं हैं जबसे भाभी छोड़ ।
जिंदगी लाई ऐसा मोड़।।
हो गये तबसे गुरू अनाथ।
नहीं देता है कोई साथ।
गोपी
तभी से सुकूँ न घर आया।
खो गई सब मस्ती भाया ।
छिना है पलपल हस्ती का।
नहीं है मांझी कश्ती का।
श्रृंगार
रात दिन बैठे हैं गमगीन।
करे क्या बेचारा नमकीन।।
मिला संदेश खुशी है मित्र ।
बने हो तुम मौंके पर इत्र।
गोपी
तुम्हारा स्वागत है आओ ।
मित्रता आकर महकाओ ।
पुराने दिन वापस लाओ ।
प्रीत के मीत गीत गाओ।
कहीं भी नहीं मुझे जाना।
साथ संडे खायें खाना ।
वहीं से सुकून रख लाना।
सुनें फिर जी भर के गाना।
श्रृंगार
रहें फिर सही पुराने ढंग।
संग में होली की हुडदंग।
करें गे दिल से तुमको याद।
होय फिर होली जिंदाबाद
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
6/3/22