गुलमोहर के लिए
अगर कभी
सूर्य से झगड़ कर
विरह के ताप से जल रही दुपहरी में
चलते हुए नंगे पांँव कच्ची सड़क पर
मिल जाएंँ महाप्राण निराला
तो कहूंँगा उनसे साधिकार
कि सो लेने दें मुझे
अपने कठोर वक्षस्थल पर सिर रख कर
शायद थोड़ी सी करुणा
जाग उठे मुझमें भी!
अगर कभी अन्याय की गहरी रात्रि में
मिल जाएंँ मुझे दिनकर
राजनीति के लड़खड़ाते पांँवों को संँभालते हुए
तो कहूंँगा उनसे
कि निहार लेने दें वे अपनी आंँखों में कुछ क्षण
शायद कि उन अग्निकुंडों से
मिल जाए मुझे भी एक चिंगारी!
अगर कभी अज्ञानता के संसार में
होश वाले लोगों के बीच घूमते हुए
मिल जाएंँ बच्चन
तो कहूंँगा उनसे
कि मुझे भी दे दें एक प्याला अपनी मधुशाला से
शायद मिल जाए मुझे भी थोड़ी सी बेहोशी!
अगर कभी
मिल जाएंँ दुष्यंत
दरख़्त के साये में निहारते हुए धूप
तो कहूंँगा उनसे
कि हाँ
पिघल ही जानी चाहिए यह पर्वत सी पीर
जल ही जानी चाहिए एक आग सीने में
हिल ही जानी चाहिए यह बुनियाद
चले ही जाना चाहिए यहांँ से उम्र भर को
लेकिन तुम अकेले न जाओ ग़ैर की गलियों में
मुझे भी ले चलो
हम साथ-साथ मरेंगे
अपने गुलमोहर के लिए!
-आकाश अगम