गुरु ईश का रूप धरा पर
गुरु ईश का रूप धरा पर
जग को यही चलाते है।
पंचतत्व के पुतले को,
नर से भगवान बनाते हैं।
बचपन में , प्रथम रूप में,
माँ बनकर के आते है।
शब्दज्ञान का पाठ पढ़ाकर,
चलना हमें सिखाते हैं।
द्वितीय रूप पिता का धरते,
आत्मनिर्भरता सिखलाते हैं।
परिस्थितियां चाहे जैसी हो,
हमारा विश्वास बढ़ाते हैं।
तृतीय रूप शिक्षक का धरते
भौतिक ज्ञान बढ़ाते हैं।
तराशकर अमूर्त पाहन को,
मूर्त रूप दे जाते हैं।
लोहे को कुंदन कर देते
बिष कोअमृत बनाते हैं।
पथ के काँटें फूल बनाकर,
सुरभियुक्त कर जाते हैं।
सुप्त-शक्तियाँ जोश जागते,
उत्सुकता सिखलातें हैं।
प्यासे मन की प्यास बुझाने,
ज्ञान कूप हो जाते हैं।
चाणक्य स्वयं को कर लेते,
जीत के द्वार खुलवाते हैं।
जीत दिलाकर चंद्रगुप्त को,
विजयी खुद हो जाते हैं।
चंद्रयान को चाँद तक,
आदित्य मिशन को सूर्य तक,
ले जाने वाले वैज्ञानिकों को,
काबिल यही बनाते हैं।
गुरु के तुल्य न कोई धरा पर
लक्ष्य को वो दिखलाते हैं।
अज्ञान के तम को हरते वो
‘दीप’ की ज्योति जगाते हैं।
-जारी।
-कुल’दीप’ मिश्रा
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