गुनगुनी धूप में
दोपहर में
भोजन उदरस्थ कर
जम जाता था
कुर्सी पर थपाक;
रिमोट लेकर
टीवी को नचाने
कुछ सार्थक तलाशने
यह मेरा नित्यक्रम था.
कि एक दिन
श्रीमती ने कहा-
ये क्या है?
बैठे रहते हो कमरे में
अपने आप में सिमटकर
आत्मलीन अंधेरे में
जरा बाहर निकलो
गुनगुनी धूप में बैठो
खेलते बच्चों को देखो
मीठी नीम के नीचे बैठो
चहचहाती चिड़ियों को देखो
उजाले में.
सच!
मैं बाहर निकला
दो कुर्सियां जमाया
बैठ गए दोनों
गुनगुनी धूप में
अनुभूति अद््भुत रही
गुनगुनी धूप ने तो
तन-मन को जगा दिया
बोझिल-बेरूखे मन को
गुदगुदा सा दिया.
चिड़ियों का कलरव
शीतल सौरव
खेलते बच्चों का कोलाहल
असीम आनंदानुभूति से
भर दिया
बैठे-बैठे और भी
मिलती रहीं
अनंत सहज-सुखद
अनुभूतियां
दिन हुआ सार्थक
– 22 जनवरी 2013