गुजरा जमाना
गुजरा जमाना
उन दिनों का प्यार बड़ा सादा था
दूर दूर से देखने में जाने कितने महीने गुजर जाते थे,
फिर कहीं जाके चिट्ठी का व्यापार शुरू होता था,
वही चिट्ठी रात में चुपके से पढ़ी जाती थी,
फिर जवाब भी कितने ही दिनों में दिया जाता था,
ऐसे लगता की सबकी नजरे ही पूँछ रही हों
कुछ ग़लत हो रहा है क्या,
फिर एक सदमा लग जाता
एक भय हो जाता , लगता है खबर सबको हो गई।
फिर तो जैसे दिल के आँगन में मातम ही छा जाता।
ना जिया ही जाता ना मरा ही जाता।
वही प्यार कितनों का दफन हो जाता ।
अलहड़पन ऐसा जगजीत सिंग की ग़ज़लों पर आंसू बहाना
चित्रहार का इंतज़ार करना
वो टीवी का वॉल्यूम बढ़ाकर
दिलों के पैग़ाम देना
उफ़ वो दौर।।
डॉ अर्चना मिश्रा