गुंजाइश
गुंजाइश
हैरान हूँ मैं, न जाने कहां खोई गई इंसानियत
सभी की संवेदना? आहत आज एक दूसरे से सभी
आखिर क्यों वेदनाओं को आहत किया सभी ने सभी की
क्या कोई गुंजाइश बाकी हैं अभी इंसान में..?
आखिर सब का ही प्रश्न क्यों..?क्या है समाधान कोई?
देखकर दिल दुखता आखिर क्या हुआ हमारे संस्कारो को
कभी सोचती हूं कि बेजार क्यूँ न रोता हैं मेरा दिल?
बताइये क्या अभी भी गुंजाइश हैं कोई बाकी…
व्यथित खुद हूँ अपने दुखों से अब न होता साथ कोई
बन चुके है अब सब पत्थर दिल शायद
हर कोई रोता ही है ये अब ये सोच सोच कर
न ही दिल अब धड़कता हैं किसी के दुख व खुशी में
क्या कोई गुंजाइश बाकी हैं अभी इंसान में..?
न जाने कब पत्थर हुआ ये जिंदा मानव
मासूम सभी समझते स्वयं को गलत दूसरा ही लगता
हैरान हूँ मै, न जाने कहां खोई दिल की मासूमियत?
क्या कोई गुंजाइश बाकी हैं अभी इंसान में..?
क्यो अपना से नही लगता सभी का कष्ट व दुख
महसूस क्यूँ नही संवेदनाओं को करता?हर कोई
मासूम सी अपनी हँसी क्यूँ लबों पे अब न बिखेरता?
क्या कोई गुंजाइश बाकी हैं अभी इंसान में..?
दर्द के पल समेटकर कर चल रहे हैं आज सभी
क्यूँ चुपचाप खुद ही घुटता जा रहा है इंसान?
अपनाकर किसी को देख तो होता..?
मुस्कुराता है बस आज स्वयं में ही ये अकेले में ही
न ही अब ये संभलता ये रिश्तों को अपनो के
न जाने कब अंदर से भरा हुआ हो गया इंसान