गीत
भाव कहाँ से लाऊँ
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शब्दों की डोली सजवाऊँ
भाव कहाँ से लाऊँ
दर्दों की लोरी सुनवाऊँ
घाव कहाँ से लाऊँ
अक्षर बने पीर के मोती
छंद बने घन बादल
कविता की भूरी आँखों के
बने नजर के काजल
छितराये हैं वाक्य सुनहरे
भीगा मन का आंचल
चातक पाठक के होठों की
स्वाति कहाँ से लाऊँ
झोंपड-पट्टी शहर बन गई
माल बन गये ऊँचे
सडकों में तबदील हो गये
छोटे-छोटे कूचे
अंधी नगरी चौपट राजा
शेर बन गये लुच्चे
अलगी के अलगाववाद में
गाँव कहाँ से लाऊँ
नदिया कट-कट नहर बन गई
कूप हो गये गायब
गाँव-गाँव तक बाढ़ आ गई
सोये फिर भी नायब
उमर कट गई बचपन की भी
कहते-कहते साहब
जो वैतरणी पार करा दे
गाय कहाँ से लाऊँ
पश्च सभ्यता संस्कृति छीनी
चीनी सिर की पगड़ी
घरों-घरों की ममता होती
हर पल हर दिन लंगड़ी
विज्ञापन की नंगी दुनिया
राह अलग ही पकड़ी
महँगी के महँगे जूतों को
पाँव कहाँ से लाऊँ
विद्यालय के टाट उठ गये
बिछते दरी गलीचे
नहीं पढ़ाई टिकती है अब
किसी पेड़ के नीचे
आबादी ने पाँव पसारे
कटते गये बगीचे
लम्बे पापूलर के नीचे
छाँव कहाँ से लाऊँ
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ