गीत
बहुत हो गये
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शब्दों की इस
पीच सड़क पर
चलने वाले बहुत हो गये
लय-यति-गति का
शब्द-योनि का
बदल गया है तौर-तरीका
अनुभव प्यासा
अनुबोधों को
निकली चेचक लगता टीका
रचनाओं की
गरिमाओं को
छलने वाले बहुत हो गये
शाब्दिक गौरव
पड़े अपाहिज
भाव-प्रबलता तिनके चुनती
कालिदास अब
रहा न कोई
बिंब-संपदा गीत न बुनती
पुरस्कार की
मृगतृष्णा में
पलने वाले बहुत हो गये
वर्ण मौन हैं
विधा अपरिचित
शोर टाँगते रहे तकाजे
हुआ बहुत कुछ
शोर-शराबा
बंद न होते उनके बाजे
पंचवटी की
सीताओं को
हरने वाले बहुत हो गये
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ