गीत पिरोते जाते हैं
प्यारी आंखों के सपने जब टूटे हों
तब मासूम से दिल भी रोते जाते हैं
आंँखों से जो गिरी अश्क की कुछ बूंदें
हम शायर हैं गीत पिरोते जाते हैं।
जिनके बेरुख होने से मर जाते हम
उनकी यादों में मर मर कर जीते हैं
कौन बताएगा अब उनको यह बोलो
जिनकी यादों में आंँसू हम पीते हैं
उल्फत की दुनियां का ये काला सच है।
जिसे गीत कहकर हम गाते जाते हैं।
एक तुम्हारे प्रेम का आंँचल था केवल
जिसको गगन मान हम सूर्य बने बैठे।
एक तुम्हारी दिल की जमीं मयस्सर थी।
जहां दीवाने तुमको खुदा चुने बैठे।
आज बनी हो याद मेरी आंँखों के तुम।
जिसे याद कर हम बस रोते जाते हैं।।
आकर देखो हाल मेरी क्या फिकर तुम्हें
मयकद होकर आज भटकता फिरता हूंँ।
कौन संँभालेगा हमको यह भी सोचो
पल पल तेरी याद में गिरता रहता हूंँ।।
मुझको को अब भी शुबहा है आओगे
इसीलिए हम नींद उड़ाते जाते हैं ।
कोई मेरी मांँग नहीं इस बस्ती से
मुझको मेरी जां दे दो बस काफ़ी है।
मेरी जान को चांँद कहो है ठीक मगर
मेरी जान को जान कहो गुस्ताख़ी है।
उन्हें फिकर कुछ रही नहीं लेकिन फिर भी
हम तो अपना दिल बिछाते जाते हैं।।
आज किसी ने जुर्रत कर डाला देखो
आज मेरी जां को वो भी जां कहता है।
आज बिखरता हूंँ दीपक उन गलियों में
मेरी जान जहांँ बनके चंँदा रहता है।
आज चूम लूंँ मिट्टी जिसपर पांँव धरे
मेरे गीत के रंगत आते जाते हैं।
दीपक झा “रुद्रा”