गीत// कितने महंगे बोल तुम्हारे !
मन के निपट अकेले पन में, हम आवाज़ लगाकर हारे
कितने महंगे बोल तुम्हारे !
सखे कभी तो सहज वचन त्रय, निःसंकोच उचारो मन से।
संवादों के जलकण लाओ, कभी गगन के नीरवपन से।
मौन तोड़ दो इंद्रवज्र सा, आर्द्र धरा सी कांप उठूं मैं।
आसमान के श्यामल उर को गर्म हवा सी माप सकूं मैं।
आंखो में पावस आया है, मन जैसे पपीहरा हुआ रे।
कितने महंगे बोल तुम्हारे !
मीठे, हों या चाहे तीखे प्रियवचनों में रस होता है।
रस खो जाए संबंधों से, फिर सबकुछ नीरस होता है।
संभवतः तुम नहीं जानते मन होता है कानों का भी।
सिर्फ प्रशंसा नहीं प्रेम में मन होता है तानों का भी।
काट दिए “दो पहर” निरर्थक, बिना हमारा नाम पुकारे।
कितने महंगे बोल तुम्हारे !