गीतिका…
चलते-चलते प्यादा, वजीर बन गया।
हरएक की नज़र में, नजीर बन गया।
किस्मत पर अपनी, क्यों न करे गुमां,
वह जो रातों- रात, अमीर बन गया।
कभी-कभी यूँ भी, सँवरता है नसीब,
फट के भी दूध जैसे, पनीर बन गया।
बन ता अभ्यास से, अनगढ़ भी ज्ञानी,
लिखते-लिखते जैसे, मीर बन गया।
भाग्य भी किसी का, लेता यूँ पलटियाँ,
राजकुँवर भी हाय ! फकीर बन गया।
‘किस्मत का लिक्खा टाले से टला कब’,
वाक्या ये पत्थर की लकीर बन गया।
हर कमी का अपनी, मढ़े और पर दोष
इन्सां का तो बस ये, जमीर बन गया।
खपा न जान ‘सीमा’, आस में सुखों की,
ग़म सदा को तेरी, तकदीर बन गया।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र)
“मनके मेरे मन के” से