गीतिका
आधार छंद वाचिक स्त्रग्विणी – मापनी – 212 212 212 212
समान्त – आने, पदांत – लगी
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खून उबला बहुत रूह जलने लगा
यह कलम हाथ की छटपटाने लगी
खूब महका चमन यार कश्मीर था
आज केसर जली दिल जलाने लगी
हर तरफ हो अमन प्रीत के गुल खिले
थी यही मन लगन अब सताने लगी
फूल भेजे सदा पग बने शूल सब
बीत सदियाँ गई मन दुखाने लगी
वो चढ़ा यान है नफरतों के सुनो
प्रीत की यह जमीं कब लुभाने लगी
हो चुकी है बहुत बात अब प्यार की
देव देखो खडग चममचाने लगी
देवकीनंदन
महेंद्रगढ़(हरि)