*गीतिका*
समन्दर प्यास कब किस की कभी देखो मिटाता है
हमेशा प्यास तो पावन नदी का जल बुझाता है
वफा के नाम पर मिटना उसे कब रास है आया
कि जीती प्यार की बाजी वो अक्सर हार जाता है
सभा के मध्य जब आकर वो रोई मान- रक्षा को
बचाने लाज फिर उसकी हमारा कृष्ण आता है
उसे अपना बनाने की लगन में जल रहा है वो
शलभ लौ का ही दीवाना ख़ुशी से तन जलाता है
सुनो तुम दोष मत देना कभी मेरी मुहब्बत को
जमाने के सभी रिश्ते ‘प्रणय’ दिल से निभाता है
लव कुमार ‘प्रणय’*