गीतिका
देख ली संसार में क्या है कहानी प्यार की।
असलियत दिखती नहीं है झूठ के संसार की।
प्यार भी धोखा धरा पर खुशनुमा सा झूठ है,
कुटिलता भी दिख रही नित प्यार में व्यवहार की।
स्वार्थपरता भावना को त्याग दें हम हृदय से,
वृत्तियों का लोप कर दें जो सदा अपकार की।
कौन सोचेगा धरातल क्यों नहीं सौहार्द शुचि,
मिट गयीं हैं क्यों प्रथाएँ प्रीतिमय आभार की।
सोचता हूँ क्या विधाता मौन हो बैठा कहीं,
आत्म-स्वर की ध्वनि कहाँ हैं रीति के प्रतिकार की।
भूल बैठी क्यों मनुजता मूल्य नैतिक भार को,
मूल शाश्वत सत्यता को मान लें हम सार की।
नवल युग हित चेतना के भाव भर दें मनस में,
चारु अनुभूतिक सदा हो भावना उपकार की।
–मौलिक एवं स्वरचित–
अरुण कुमार कुलश्रेष्ठ
लखनऊ(उ.प्र.)