गीता हो या मानस
शाम जीवन की हो रही
सुनो है आयु ये कहती ,
कोई भी पार्टी निर्मेश
शुरू भी शाम से होती।
असीमित झंझटों से
थे अभी तक घिर गए थे हम,
मिला मौका हमें है अब
चलो तो खुल के जियें हम।
न कोई सुख हमें देता
न कोई दुःख रहा देता ,
किया जो कर्म है हमने
उसीका फल हमें मिलता।
अगर विपरीत कुछ होता
दोष दूजे का हम देते ,
किये सत्कर्म का अपने
सदा ही श्रेय सब लेते।
रही गीता हो या मानस
कर्म की बात सब करते,
समर्पित कर्म को ही धर्म का
पर्याय है गढ़ते।
नियति है बन चुकी सबकी
सदा उस दोषरोपण की ,
अपने सर की टोपी को
सदा दूजे पे मढ़ने की।
नियति करती रही अन्याय
वृथा, कहना है ये मेरा ,
वही काटोगे जो बोया
तुम्हारा कर्म है तेरा।
बना आधार ही प्रारब्ध
हमारे वर्त्तमानों का,
संवर पाया नहीं निर्मेश
राह देखे है आगत का।