गीता के स्वर (10) बुद्धियोग व विभूति
प्राणियों की असंख्य मनोवृत्तियाँ-
यश-अपयश, सुख-दुःख, तप-दान सब
उद्भुत हैं
सर्वशक्तिमान से.
महाबाहो !
मैं ही हूँ
सबकी उत्पत्ति का कारण
मुझमें रमने वाले
पात्र हो जाते हैं-
बुद्धियोग का.
श्रुतियाँ कहती हैं-
परमब्रह्म हैं नारायण
परम आत्मा, ज्योति व परम तत्व भी वही हैं
नारायण ही समर्थ हैं
अपने को परिभाषित करने में
वह रूद्रों में शंकर हैं
ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य, चन्द्रमा सब वही तो हैं
नदियों में गंगा
स्थावरों में हिमालय
और शिखरों को सुशोभित पर्वतों में
‘सुमेरू’ भी वही हैं.
शब्दों के अक्षर
वृक्षों में पूजनीय पीपल
सर्पों में ‘वासुकि’
वही तो हैं
चतुर्दिक प्रवास करने वाले
नारायण,
चतुर्मुख ब्रह्मा.
अन्त नहीं है
नारायण की दिव्य विभूति का
सभी चराचर पदार्थ
अस्तित्व में हैं
नारायण से
वहीं समस्त प्रकटन का
मूल बीज हैं
सर्वव्यापी.