गिलहरी
बालकनी में दिखी गिलहरी,
नजर हमारी उस पर ठहरी।
नन्हीं छोटी-सी है प्यारी,
जिसके तन पर गहरी धारी।
रोयेंदार पूँछ झबरीली,
काली पीली बड़ी फबीली।
कंचे जैसे आँखें दिखते,
दाँत दूध से उजले लगते।
उछल- उछल कर वो चलती है,
सबके मन को हर लेती है।
लगती कितनी सुन्दर कोमल ,
है विद्युत के जैसी चंचल।
दिन भर डाली से उस डाली,
फिरती रहती है मतवाली।
श्रम से कभी नहीं थकती है,
काम करो सबसे कहती है।
कुतर-कुतर कर फल को खाती ,
मृदा खोद कर बीज छुपाती।
जिससे वृक्ष निकल आते हैं,
सभी जीव छाया पाते हैं।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली