गिद्ध मँड़राने लगे
बह रही शीतल हवाएं, अरु भ्रमर गाने लगे।
आजकल शायद उसे हम याद अब आने लगे।
देखकर ढ़लती जवानी पुष्प मुरझाने लगे।
छोड़कर मझधार में क्यों तुम मुझे जाने लगे।
पर निकल आए परिंदों को तो फिर रुकना कहाँ,
आसमांँ को नापना है पंख फैलाने लगे।
है चुनावी साल होंगी घोषणाएंँ खूब अब,
अश्क लेकर आँख में नेता आज चिल्लाने लगे।
छोड़कर वातानुकूलित दफ्तरों का मोह क्यों,
आ गए नेता सभी जनता को बहलाने लगे।
उम्र अरु इच्छाएं दोनों साथ बढ़ती जा रही,
झुर्रियांँ गालों पे चश्में आँख पर आने लगे।
हार जाता सत्य हरपल देख लो चारों तरफ,
झूठ ही सबको न जाने क्यों यहाँ भाने लगे।
मिल गया मुद्दा यहाँ तो खूब हो हल्ला मचे,
देखकर ज्यों लाश आता गिद्ध मँड़राने लगे।
मैं हकीकत कह रहा था आपबीती थी मेरी,
हँस रहे थे लोग उनको ‘सूर्य’ अफसाने लगे।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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