गांव से आया था
गाँव से आया था, मित्र मुझे मिलने मिलाने
सच कहूँ तो यारों मुझे मेरी औकात दिखाने
लाख समझाया खुद को झूठ के पाँव नहीं
मेरा जिस्म छलनी उसकी बातों के निशाने
लूटा मेरी इज्जत का काफिला बरसती रात
जीत कर हार गया था मैं नहीं थे कोई बहाने
हम वतन था माटी की खुशबू उससे आती
किताबो में ढुढँ रहे थे हम कुछ किस्से पुराने
वो पूछता रहा मेरी शहरी ज़ात को बार बार
मैं किश्तो में कत्ल करता रहा ये अपने ब्याने
वो कड़वी नीम के नीचे की मीठी बातें अपनी
मीठी चाय से कड़वी बिमारी के हुए ख़ानदाने
कहाँ ख़्वाब पुरे हुए थे अपने शहर में आकर
घर छोड़कर आये मिले हमेँ रहने को मुर्गीखाने
वतन के काम की जवानी ना रही अपनी अब
शहर शहर ना हुआ बने संस्कृति के कत्लखाने
मेरे दिल में आज भी एक गाँव बस्ता है यारों
हम शहरी बन गए या हो आये किसी पागलखाने
यहां तो मर्द औरत सा दिखता औरत मर्दो सी
नपुंसकता हावी दिमाग पर बिगडे है जो थे सयाने
इंसान की शक्ल में सब जानवर घूमते फिरते यहाँ
ज़मीर मारकर ढूंढ रहें लोग कहाँ जाये दफनाने
मंहगाई के हाथों कत्ल हुआ अशोक का फन भी
दहशत का माहौल दिल पे दिल जब है मुरदाखाने
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से