गांव तरसते हैं…
सुविधाओं के लिए अभी भी गांव तरसते हैं।
सब कहते इस लोकतन्त्र में
शासन तेरा है,
फिर भी ‘होरी’ की कुटिया में
घना अंधेरा है,
अभी उजाले महाजनों के घर में बसते हैं।
अभी व्यवस्था
दुःशासन को पाले पोसे है,
अभी द्रौपदी की लज्जा
भगवान – भरोसे है,
अपमानों के दंश अभी सीता को डसते हैं।
फसल मुनाफाखोर खा गये
केवल कर्ज बचा,
श्रम में घुलती गयी जिन्दगी
बढ़ता मर्ज बचा,
कृषक सूद के इन्द्रजाल में अब भी फँसते हैं।
रोजी – रोटी की खातिर
वह अब तक आकुल है,
युवा बहिन का मन
घर की हालत से व्याकुल है,
वृद्ध पिता माता के रह रह नेत्र बरसते हैं।
— त्रिलोक सिंह ठकुरेला