गांधीजी के तीन बंदर
गांधीजी के तीन बंदर
(छ्द्ममुक्त काव्य)
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बधिरों की हंसी ,
गूंगों की अभिज्ञान,
चेहरे पर रहे सदा निश्छल मुस्कान।
देखो तो _
एक सुन नहीं पाता तो ,
दूसरा बोलता नहीं।
एक को बुराई ग्रहण करना नहीं आता ,
तो दूसरे को जहर घोलना नहीं आता ।
अक्षम होते केवल तन से ,
सदा सबल सक्षम हैं मन से।
नकारात्मकता से दूर ,
सृजनशीलता के पैमाने पर ,
कार्यकुशलता पर इनकी संदेह नहीं ।
कहतें हैं पंचेंद्रीय ही है कर्मबंधन का उद्गम स्थल ,
पाप और पुण्य का संप्रेषण पथ है ये ,
जो संगति व आवेश की प्रकृति अनुसार ,
मन को हर क्षण कम्पित करती है।
सूरदास को, दृष्टिहीन होकर भी ,
कृष्ण के बाल सौदर्य का अलौकिक छवि दिख जाते थे ,
पर नेत्रधारियों को भगवान दिखता ही नहीं ।
अतः यह सिद्ध तथ्य है कि चाबी तो मन में ही है ,
मन को आह्लादित कर मुक्ति की दिशा में ले जाएं ,
अथवा मन को विकल कर बंधन की तरफ ,
ये तो निर्भर है ,
हमारे चेतन/अवचेतन मन के सारथि बने इन्द्रियों पर।
इन्द्रियों से अपंग रहिए परन्तु ,
मन से दिव्यांग बनिए।
सफल जिन्दगी जीने के लिए ,
गांधीजी के तीनों बुध्दिमान बंदरों का ,
यही तो संदेश था ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि –०४ /११/२०२२
कार्तिक,शुक्ल पक्ष,एकादशी, शुक्रवार
विक्रम संवत २०७९
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