गांठ बांध लो आज
गांठ बांध लो आज
देखो! ना छोड़ना कभी मात-पिता के उन कमजोर काँपते हाथों को,
इन्हीं हाथों से पकड़कर तुम्हें, नन्हे कदमों से वो चलना सिखलाये थे…!
इन्हीं हाथों से अनगिनत निवाले खाये, कितनी कहानियाँ
सुन-सुन तुमने,
अंगुलियाँ थाम उनकी ,दुनिया की हर भीड़ में खुद को महफूज़ पाये थे…!
ख्वाहिशें अपनी ही जब सोचो तुम हर रोज कितनी मनवाते थे उनसे,
अपनी जरूरतों को कर दफ़्न, तुम्हारी खुशी में ही खुश नजर आये थे…!
तुम्हारी हर तकलीफ में खुद को भी, हमेशा उतना ही दुखी पाया जिसने,
खुशियों में तुम्हारी होते थे जो खुश, आँखों में वो नमी भर लाये थे…!
हर चुनौती में बने सहारा, असफलता में हिम्मत बनकर जो रहे
तकलीफ की धूप सह, तुम्हें सुकूँ की छाँव दे ख़ुशी से फर्ज निभाये थे…..!
सुनो! ना छोड़ना तुम बेसहारा अपने बुर्जुगों को जीवन में कभी भी,
जो सब सपने भूलकर अपने, तुम्हारे ही सपने को रंगीन बनाये थे……!
तुम्हारी हर जरूरत के लिए,अपनी जरूरत को बेमानी समझा, तुम्हारी जरूरत को पूरा करके, कितना दिली सुकूँ वो जीवन में पाये थे….!
हो सहारे की जरूरत और जब थके कदम लगे लड़खड़ाने उनके,
काँपते अल्फाज़ो में उनको, अपने प्यार और भरोसे की ताकत देना…!
बस इतना सा था तुमसे कहना… बस इतना ही तुमसे है कहना।
दीपाली