गाँव सहमा हुआ आया है जीता
गाँव सहमा हुआ आया है जीता
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गाँव सहमा हुआ आया है जीता।
सारे घुटन और त्रास एकाकी पीता।
गाँव शतरंज की बिसात सा बिछा है।
कौन किसको खेलेगा बात-बात में छिपा है।
शहरों में आकर झूठ जीता है गाँव।
महान संस्कृति से अब ‘रीता’ है गाँव।
टोलों की सभ्यता में सीमित है गाँव।
शायद अब स्मृति में ही जीवित है गाँव।
शहरों का जीता है गाँव में ‘मन’ मानव।
रहा है मात्र गाँव का कृशकाय ‘तन’ मानव।
जो जीवन अभी बचा है गाँव में आज।
आक्रोशित एवम् अत्यंत क्रोधित है आवाज।
बहुत से संघर्षों का कोख बन रहा है वह।
बहुत से विरोधों का क्रोध बन रहा है वह।
सत्ता के संघर्ष में अपनी भूमिका तलाशने आतुर।
पर,जातिगत वर्चस्वता से निहित,बनता भस्मासुर।
कल असुविधाओं से डरे हुए भाग गए थे लोग।
सुविधाओं के वायदे हैं,लौटने को राजी नहीं लोग।
लोग वर्ग में बंटे तो हैं, नकारता रहा है गाँव।
सम्पन्न और विपन्न में कम जाति में ज्यादा,गाँव।
विवाद पर जाति के झंडे में जमा होता है गाँव।
संपन्नता व विपन्नता कभी नहीं लड़ा है गाँव।
शोषण की मान्यता बरकरार है आज भी गाँव में।
अब तो राजनैतिक भी आ जुटा,जम गया पाँव में।
शिक्षा सिर्फ साक्षरता अभियान बन रह गया है।
शिक्षक सिर्फ ‘खुद का अभिमान’ बन रह गया है।
डरावना संसार है गाँव में आज भी गाँव का।
विस्तार प्रश्नांकित है गाँव ही में गाँव का।
डर का चेहरा-मोहरा, हाव-भाव बदल गया।
बेदम करने का माद्दा यहीं आज पल गया।