गाँव-बेटी
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जिसकी हर जिद
बेटे के फरमाईस के बाद
पूरी किए जाने का
आश्वासन जाता है दिया
वह गाँव की तरह
बेटी है-सपाट,सरल।
परम्परा तो यही है-
बाप निभाता है।
माँ कहती है अत:
बेटी भी मानती है
और तब्दील हो जाती है
गाँव में।
परम्परा तो यही है।
माँ! उठो,
बेटी को विद्रोह सिखाओ।
परम्परा के आड़ में हो रहे
इस सामाजिक व मानवीय असमता के विरूद्ध
बेटी की इच्छाओं और आकांक्षाओं को
विरोध का जूडो और कराटे सीखने को
उत्प्रेरित व उत्तेजित करो।
नहीं तो होता रहेगा
बेटी के सपने में आयेवाले
रथारूढ़ राजकुमार
बैलों को हाँकता हुआ
हल चलाता
अनगढ़ किसान सा
परम्पराओं को
ठेलता एक और
जिद्दी बाप।
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