गाँव की गलियों के बदल गये हैं संस्कार
गाँव की गलियों के बदल गये हैं संस्कार।
इसमें अब आग है और भूख से तड़पा हुआ नफरत।
दयावान दरवाजे दहशत में और शोषण से बौखलाया आदमी आपे से बाहर।
ईश्वरीय आश्वासनों ने दरिद्रता पसार दिया है बाहर तक गलियों से।
नंगे कंधों पर बैठा नग्न बालक चिल्लाता है बिना डरे,भूख से –
माँएँ थप्पड़ मारे डांटे या दे पटक और फिर गोद में उठा पुचकारे।
बाप बच्चे के भूख से समझौता करने के बात पर मरने-मारने को उतारू।
गाँव की गलियों में हवा फुसफुसाहट से सनसनाहट में रहा है बदल।
नियति को चुनौती देता तुम्हारे नीयत पर बुना सन्नाटा महसूसता गाँव।
सामन्ती कुकर्मों की उम्र छोटी से छोटी करने तत्पर है युवाओं का मन।
औरतें उतारकर आवरण आगे आने को मना करती वीरांगनाओं जैसी।
द्विजता की परिभाषा गढ़नेवाले सारे शब्दों को पीटती बेटियों के नारे।
पसीने पर जमा हुआ मेहनत का गर्द-गुबार अपने स्वरूप को आकार देने कटिबद्ध।
पंच परमेश्वर के अखाड़ों की राजनीति से राजनैतिक दांव-पेंच।
कुँओं की परिधि से मन्दिर के द्वार तक कदमों को गिनने का पहाड़ा।
तुम्हारा धर्म धारण कर धर्मच्युत हुआ अछूत वीरत्व का उभरता गौरव।
जाड़े के धूप और पीपल के छाँव का निडर पुकार लेना सबको पास।
अभिजात्यता के खोखलेपन की कहानियाँ दुहराती नानियाँ,दादियाँ।
इस गाँव के, भय से जीर्ण संस्कार का इस तरह होना सुसंस्कृत।
सच में बदल रहा है गाँव की गलियों के संस्कार।
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