गाँवों की पगडंडी
राजमार्ग से
प्रश्न कर रही,
गाँवों की पगडंडी।
कब पहुँचेगा
मेरे द्वारे,
यह विकास पाखंडी।
बूढ़े गाँवों में
दिखता है,
सुविधाओं का टोटा।
बच्चे मार रहे
तख्ती पर,
अब तक बैठे घोटा।
गुमसुम देख रहे
दादा जी,
पहने मैली बंडी।।
किंशुक जैसे
प्यारे वादे,
मन को हैं बहलाते।
घनी अँधेरी
बस्ती में पर,
नहीं उजाले लाते।
सुलग रही है अरमानों की,
धीरे-धीरे कंडी।।
चौपालों की
आँखों से है,
गायब सारी शोखी।
बिना आग के
हुक्का बैठा,
करे न बातें चोखी।
राजनीति का
दल-दल गाड़े,
द्वारे- द्वारे झंडी।।
डाॅ बिपिन पाण्डेय