ग़ज़ल
ग़ज़ल
काफ़िया-आर
रदीफ़-बिकते हैं
अजब मालिक की दुनिया है यहाँ किरदार बिकते हैं।
कहीं सत्ता कहीं ईमान औ व्यापार बिकते हैं।
पड़ी हैं बेचनी सांसें कभी खुशियाँ नहीं देखीं
निवाले को तरसते जो सरे बाज़ार बिकते हैं।
लगाई लाज की बोली निचोड़ा भूख ने जिसको
लुटाया ज़िस्म बहनों ने वहाँ रुख़सार बिकते हैं।
पहन ईमान का चोला फ़रेबी रंग बदलते हैं
वही इस पार बिकते हैं वही उस पार बिकते हैं।
सियासी दौर में ‘रजनी’ लड़ाई कुर्सियों की है
हमारे रहनुमाओं के यहाँ व्यवहार बिकते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“तुम्हारे बिन”
तुम्हारी याद के साए सताते हैं चले आओ
हमें जीने नहीं देते रुलाते हैं चले आओ।
तुम्हारे गेसुओं में पा पनाह हर शाम गुज़री है
फ़लक से चाँद तारे मुँह चिढ़ाते हैं चले आओ।
तुम्हारे बिन फ़िज़ाएँ अब हमें बेरंग लगती हैं
चुराकर फूल की खुशबू लुटाते हैं चले आओ।
तुम्हारी आहटों को हम पलक पर आसरा देते
गुलों की मखमली चादर बिछाते हैं चले आओ।
नहीं पाकर कोई संदेश उल्फ़त लड़खड़ाती है
रुँआसे ख़्वाब नींदों में जगाते हैं चले आओ।
बहाकर अश्क आँखों से भिगोया रातभर तकिया
लिए ख़त हाथ में हम बुदबुदाते हैं चले आओ।
तुम्हारे बिन गुज़ारी ज़िंदगी तन्हा ज़माने में
सुनो ‘रजनी’ तड़प कर हम बुलाते हैं चले आओ।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर
‘हसीन ख्वाब’
खत पढ़े दो-चार हमने ख़्वाब आया रातभर।
संगमरमर हुस्न ने हमको जगाया रातभर।
सेज उल्फ़त की सजी क़ातिल अदाएँ छल गईं
हुस्न की अठखेलियों ने दिल लुभाया रातभर।
क्या ग़ज़ब की शोखियाँ मदहोशियाँ आईं नज़र
प्रीत नैनों में बसा मुझको रिझाया रातभर।
जिस्म की खुशबू समाई हुस्न की हर साँस में
नरगिसी आँखें झुका मुझको सताया रातभर।
क्या कहें क्या रात थी क्या बात थी उस हुस्न में
शोख ,मतलाली अदा ने दिल चुराया रातभर।
मैं ठगा सा रह गया ज़ुल्फें हटा रुख़सार से
बेनक़ाबी हुस्न ने मुझको पिलाया रातभर।
रू-ब-रू हो मरहबा का हाथ ने दामन छुआ
बच न पाया हुस्न से ‘रजनी’ जलाया रातभर।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“आज़मा कर देखना”
याद में मेरी कभी ख़ुद को भुलाकर देखना।
ख़्वाब आँखों ने बुने उनको चुराकर देखना।
गीत होठों के सभी क्यों आज बेगाने हुए
रख भरम में आप हमको गुनगुनाकर देखना।
फ़ासले चाहे न थे तुम दूर हमसे क्यों हुए
ज़िंदगी की इस सज़ा को तुम मिटाकर देखना।
बारिशों की बूँद में सिमटा हुआ सब दर्द है
हो सके तो रूह से अपनी लगाकर देखना।
आँख में सावन बसाकर ज़ख्म सारे पी गए
बेवफ़ा -ए-यार तू हमको रुलाकर देखना।
रूँठ जाने की अदा सीखी कहाँ से आपने
जान हाज़िर है मुहब्बत को मनाकर देखना।
हौसले उम्मीद के ‘रजनी’ सलामत हैं अभी
आज़मानी है मुहब्बत दिल जलाकर देखना।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
काफ़िया-ई
रदीफ़-भूल गए
2122 1122 1122 112/22
(मेरी आवाज़ भी सुन मेरे फ़साने पे न जा)
गैर के साथ चले राह कई भूल गए।
जो हमें याद रहे आज वही भूल गए।
बेरुखी सह न सकें आज जिएँ हम कैसे
ग़म दिए आपने’ उल्फ़त जो मिली भूल गए।
उम्र भर आप सताएँगे हमें यादों में
रात का चैन चुरा आप नमी भूल गए।
आपकी याद उदासी बनी इन आँखों की
प्रेम का रोग लगा हम तो हँसी भूल गए।
प्यार में वार किया तीरे नज़र से जिसने
आशिकी को न समझ पाए कभी भूल गए।
है अजब इश्क जुदाई न सही जाए सनम
छोड़के आप गए अपनी जमीं भूल गए।
ज़िंदगी आप बिना ‘रजनी’ गुज़ारे कैसे
रोज़ मिलते रहे जो आज गली भूल गए।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“बस्ती जलाना छोड़ दे”
—————————-
सीखले कुछ इस जहाँ से आज़माना छोड़ दे।
कर्ज़ रिश्तों का निभा किश्तें चुकाना छोड़ दे।
चंद सिक्कों के लिए बिकता यहाँ इंसान है
तू फ़रेबी लोभ से पैसे कमाना छोड़ दे।
बाँट मजहब में वतन को पाक जैसे फल रहे
देशद्रोही कौम से मिलना-मिलाना छोड़ दे।
बेचकर बैठा यहाँ इंसानियत हर आदमी
हो चुका बदनाम कितना तू सताना छोड़ दे।
प्यार पाने के लिए ख़ुदगर्ज़ियों को दूर कर
दर्द मीठे ज़हर का पीना-पिलाना छोड़ दे।
ख़ौफ़ खा अब तू ख़ुदा से कुछ शराफ़त सीखले
भूलकर हैवानियत नफ़रत लुटाना छोड़ दे।
ये सफ़र मुश्कल बहुत है राह ‘रजनी’ है कठिन
फिर बसाके आशियाँ बस्ती जलाना छोड़ दे।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“यहाँ ईमान बिकता है”
—————————-
लगाकर आग मजहब की जलादीं बस्तियाँ देखो।
सिसकती लाज बहनों की लगादीं बोलियाँ देखो।
बहुत भूखा बहुत नंगा यहाँ इंसान लगता है
यहाँ ईमान बिकता है खरीदें रोटियाँ देखो।
पहन नेता मुखौटे राजनैतिक चाल चलते हैं
करें व्यापार सत्ता में यहाँ ख़ुदगर्ज़ियाँ देखो।
छिपाकर नोट लेते हैं बिकाऊ खून सस्ता है
जहाँ कुर्सी बनी चाहत वहाँ दुश्वारियाँ देखो।
कई किरदार ऐसे हैं नसीहत बाँटते सबको
सियासत मुल्क में करते ज़रा रुस्वाइयाँ देखो।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ.प्र.)
संपादिका- साहित्य धरोहर