ग़ज़ल
घृणा का हर ज़गह साया पड़ा है ।
हवाओं में जहर का जायका है ।
बिना आधार ही सब बोलते हैं,
‘पते की बात’ का किसको पता है ?
पलटकर देखिए तारीख के पन्ने,
ज़माने ने ज़माने को सहा है ।
बसी घर में पुरानी एक पीड़ा,
नया इक दर्द फिर से आ गया है ।
मचाते शोर वन में सिर्फ़ गीदड़,
न जाने शेर किस बिल में छिपा है ?
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी ।