ग़ज़ल
काफ़िया-ई
रदीफ़-नहीं आती
2122 1212 22
आँख रोती नमी नहीं आती।
बेवफ़ा है खुशी नहीं आती।
रौंद के ज़िस्म को मसल डाला
होठ पे अब हँसी नहीं आती।
शाख से फूल टूट के बिखरे
ठूँठ पे ताज़गी नहीं आती।
बेबसी साथ को यहाँ तरसे
ग़म सताते कमी नहीं आती।
टूट के आसमान भी रोया
द्वार पे चाँदनी नहीं आती।
प्यार दफ़ना दिया दिवारों में
याद तेरी कभी नहीं आती।
कौन कहता कि रजनी’ ज़िंदा है
लौट के ज़िंदगी नहीं आती।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर