ग़ज़ल
अगर तुम साथ होती तो सफ़र आसान हो जाता ।
गुनाहों से निकल शायद मैं फिर इंसान हो जाता ।
नहीं मिलती ज़माने में दिलों की बस्तियाँ उजड़ी,
मोहब्बत का उधर से भी अगर ऐलान हो जाता ।
मसीहा वो मेरे दिल का वो मुंसिफ रहनुमा भी है,
मेरी यादों में रहता, साथ होता ज़ान हो जाता ।
कहूँ कैसे सभी से मैं बहुत बेचैन रहता हूँ ,
मिलीं जो रोज़ ख़बरें उनसे मैं अंजान हो जाता ।
सुना “अरविन्द” ने दिल मुस्कुराता है मोहब्बत में,
अगर बहते न आँसू आँख से बेजान हो जाता ।
✍️ अरविन्द त्रिवेदी
महम्मदाबाद
उन्नाव उ० प्र०