ग़ज़ल
कभी तो दीजिए मौका हमें भी यार ख़िदमत का
सिला देंगे हुई दिल से रुहानी पाक चाहत का/1
रखूँ इक बात मैं जो याद दूजी भूल जाता हूँ
कहूँ बे-फ़िक्र ख़ुद को या कहूँ ज़ादू मुहब्बत का/2
कभी सोचा नहीं तुमने ख़ुदा ईनाम देता वो
ज़मीं से अर्श दिखलाए हुई सच्ची इबादत का/3
दिए हैं ज़ख्म जिसने भी भुलाकर प्यार तेरा सुन
सज़ा उसको ख़ुदा देगा अदा कर हक़ नफ़ासत का/4
करे जो सब्र करके काम उसकी ज़िंदगी सुंदर
फिकर कर कब हुआ हासिल किसी को फल इनायत का/5
कशिश ये आपकी देती मुझे पैग़ाम उल्फ़त के
करूँ मैं फ़ैसला कैसे खिलाफ़त कर बग़ावत का/6
कमाया ख़ूब तुमने है पचाओगे तभी जानें
सुना है बाँध भी दावा नहीं करते सलामत का/7
आर. एस. ‘प्रीतम’