ग़ज़ल
सवालों के हृदय टूटे हुए हैं ।
जवाबों के जिगर रूठे हुए हैं ।
बहुत फेंके है पत्थर ये ज़माना,
मगर फल डाल पर अटके हुए हैं ।
बहारे गुल से गायब है महक भी,
खिजाँ के पात भी सहमे हुए हैं ।
हुकूमत ने दिए जो दर्द अब तक,
दर-ओ-दीवार पर उभरे हुए हैं ।
पसारे झूठ अपने हाथ लम्बे,
हकीकत के कदम सिकुड़े हुए हैं ।
००००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी