ग़ज़ल
मानता हूं आशियाना हादिसों की ज़द में है।
मुझको लगता हर बशर अब साजि़शों की ज़द में है।
रास्ता ये पुर खतर दुश्वार है, पुरखा़र है।
रहबरों के भेष में यह रहज़नों की ज़द में है।
क्या पता यह मुल्क सालिम रह सकेगा या नहीं।
दुश्मनों की भीड़ है या दोस्तों की ज़द में है।
देख मत मेरे गुनाहों को, सजा़ ऐलान कर।
आजकल मुंसिफ बे चारा मुश्किलों की ज़द में है।
तुझको अपनाने की खा़तिर किस तरह मजबूरियां।
क्या करें किरदार अपना बंदिशों की ज़द में है।
कौन रखवाली करेगा मुल्कों मिल्लत की यहां।
आजकल तो यह चमन अब सिर्फ सिरफिरों की ज़द में है।
रास्ते मंजि़ल की खातिर ढूंढता हूं मैं “सगी़र”।
मेरी कि़स्मत का सितारा गर्दिशों की ज़द में है।