ग़ज़ल
ग़ज़ल
किस बात पे रूठे हो क्यों आंख छलकती है
कह दो न इशारों से, मेरी जो भी ग़लती है
दीवार बना दी है आंगन में हमारे जो
निकलूँ जो कभी बाहर दिल को वो खटकती है
शातिर को समझ आई तब जुर्म की सच्चाई.
जब सर पे हमेशा ही तलवार लटकती है
हमने न कभी मानी जो ग़लतियां थी अपनी
अब वक्त गुजारने पे बस आह निकलती हैं
परदेस उड़ी चिड़िया वीरान हुआ आंगन
बगियाँ में न अब कोई आवाज़ चहकती है
मैंने न गिनी रातें रातों ने गिना मुझको
हर रोज घटी हूं मैं हर रात ये कहती है ।।
गर नींव हिली तो फिर घर टूट ही जायेगा.
दीवार की ये चोटें बुनियाद ही सहती है।।
मासूम की अस्मत को यूं रौंद गया जालिम..
देखे जो कोई साया बच्चों सी सहमती है।।
इक याद मनी फिर से अब बर्फ़ सी पिघलेगी
इस शख़्स की कहानी अपनी मुझे लगती है।।
मनीषा जोशी मनी