ग़ज़ल
लहरते पानी में जैसे हबाब टाँक दिये
हमारी आँखों में किसने ये ख़्वाब टाँक दिये
मिला न फूल तो अपने गुलाबी होंठों से
हमारे कोट पे उसने गुलाब टाँक दिये
हमारी ज़िस्त में औराक़े इश्क़ थे ही नहीं
कि इस किताब में किसने ये बाब टाँक दिये
हर एक शय की ज़रूरत को देख कर उसने
कहीं पे चाँद कहीं आफ़ताब टाँक दिये
हमारी राह में काँटे बिखेरे हैं जिसने
उसी की ज़ुल्फ में हमने गुलाब टाँक दिये
दिवाना राँझणा मजनूँ न जाने और क्या क्या
हमारे नाम से कितने ख़िताब टाँक दिये
तुम्हारी ज़िन्दगी में ‘नूर’ वो ही बख़्शेगा
कि जिसने तीरगी में माहताब टाँक दिये
✍️ जितेन्द्र कुमार ‘नूर’
असिस्टेंट प्रोफेसर
डी ए वी पी जी कॉलेज आज़मगढ़