ग़ज़ल
जिस जगह आख़िरी बार हम तुम मिले
फूल ही फूल अब उस जगह पर खिले।
हाँ वहीं पर हमारा बना मक़बरा
थी जहाँ बैठकर तुम सुनाती गिले।
इश्क़ का मर्ज़ ऐसा कभी कम न हो
इश्क़ में फ़ैसले फ़ासले सिलसिले।
अब वहाँ है फ़क़त सिर्फ़ वीरानियाँ
जिस जगह थे मोहब्बत के सौ क़ाफ़िले।
आज आया वहाँ एक जोड़ा नया
जिस जगह आख़िरी बार हम तुम मिले।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’