“ग़ज़ल”
खुद को आईने में देखकर जी भर गया होगा..
वो जिंदा भी होगा तो किरदार मर गया मेरा..
शहर भर में उसने मुझको ढूंढा होगा बहुत,
मगर लौटकर खाली हाथ घर गया होगा..
वो जो अनसुना करता था मुझको कभी,
मेरे अशार सुनने को वो तरस गया होगा..
जो नज़रें चुराएं फिरता है मुझसे कभी,
मुझको मुझसा देखकर डर गया होगा..
पढ़ा होगा अख़बारों में जब कलाम मेरा,
फिर तो दिल उसका भी भर गया होगा..
ख़ैर मौसम–ए–मिजाज़ था ज़ेहन उसका.,
सो पढ़ा होगा, रखा होगा फिर बदल गया होगा..
(ज़ैद बलियावी)