ग़ज़ल
ग़ज़ल
हसनैन आक़िब
अब तुमसे मोहब्बत की ये आदत नहीं जाती।
सुनता हूं कि आसानी से ये लत नहीं जाती॥
तुम भी गए, ओझल हुई तस्वीर तुम्हारी
आंखों में जो फिरती है वह सूरत नहीं जाती॥
हाकिम जो कहेगा वही मुनसिफ़ भी कहेगा
ये सोच के जनता भी अदालत नहीं जाती॥
तदबीर भी लाज़िम है, दुआएं भी ज़रूरी
फ़रियाद ही करने से मुसीबत नहीं जाती॥
अल्फाज़ में नरमी हो तो बनते हैं कई काम
लहजा हो अगर नर्म तो इज्ज़त नहीं जाती॥
अल्लाह का डर भी है, क़यामत का भी है खौ़फ
और दिल से गुनाहों की मोहब्बत नहीं जाती॥
हम जानते हैं इस में है नुक़सान सरासर
अब क्या करें, हम से ये मुरव्वत नहीं जाती॥