ग़ज़ल
लुटेरे रहनुमा इतरा शहर से गुज़रे हैं।
ज़रा सँभल के चलें दिल जिगर से गुज़रे हैं।
चुराके चैन हँसी आज हमसे छीनी है
करीब आके दगा दे उधर से गुज़रे हैं।
एक मुद्दत से दिखा बेवफ़ाई का मंजर
आज सौदाई बने वो खबर से गुज़रे हैं।
ज़िंदगी को किया महरूम अपनी यादों से
कत्ल अरमान का करके सफ़र से गुज़रे हैं।
सियासी चाल चलें मुस्कुरा रहे ज़ालिम
सेज काँटों की बिछी वो जिधर से गुज़रे हैं।
वक्त है रेत के मानिंद फ़िसल जाएगा
आग बस्ती में लगा वो इधर से गुज़रे हैं ।
बढ़ाके नफ़रतें क्यों छीनती हो सुख ‘रजनी’
हादसे मौत के संग ले डगर से गुज़रे हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’