ग़ज़ल
मापनी ? २१२२ २१२२ २१२२ २१२
ग़ज़ल ?
गाँव अपना है मगर अब गाँव जैसा कुछ नहीं।
मिल रहा है भाव लेकिन भाव जैसा कुछ नहीं।
मिट गये रिश्ते पुरातन मिट रहे परिवार अब।
घाव दे कहते सभी अब घाव जैसा कुछ नहीं।
घर पुरातन आज खस्ताहाल जाने क्यों हुआ।
पत्धरो से घर बना परवाह जैसा कुछ नहीं।
आज उर में द्वेष का अंबार है ग़ाफ़िल यहाँ।
साथ रहते है सभी परिवार जैसा कुछ नहीं।
दर्द गलियों के सिवा अब जानता ही कौन है।
दर्द में सब जी रहे पर आह जैसा कुछ नहीं।
रस्म रिश्तों को निभाने की बड़ी माकूल है।
दे रहे पैगाम सब पैगाम जैसा कुछ नहीं।
कह रहे सब साथ रहना भी जरूरी है सचिन।
साथ तो रहते मगर अब साथ जैसा कुछ नहीं।
✍️पं.सचिन शुक्ल ‘सचिन’