ग़ज़ल
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दिल के ज़ख़्मों को छुपाने में मज़ा आता है
सबके संग हँसने हँसाने में मज़ा आता है
छोड़ दे गन्दी सियासत तू हुकूमत के लिए
प्यार से मुल्क़ सजाने में मज़ा आता है
नफ़रतें मुल्क़ में फैला के है वो कौन जिसे
भाई -भाई को लडाने में मज़ा आता है
बीज अब बुग़्जो हसद के नहीं बोओ यारो
प्यार के फूल खिलाने में मज़ा आता है
तुम जलाना न परिन्दों के बसेरे साहेब
होली नफ़रत की जलाने में मज़ा आता है
बन के हैवान न अब कुचलो किसी की इज़्ज़त
फर्ज़ इंसां का निभाने में मज़ा आता है
गर उठाना है तो गिरते को उठाओ “प्रीतम”
अब न तलवार उठाने में मज़ा आता है
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)