ग़ज़ल 24
बनके ख़ुशबू फूल की सब को लुभाती है ग़ज़ल
मस्त भौंरे की तरह भी गुनगुनाती है ग़ज़ल
ज़िन्दगी से रू-ब-रू हमको कराती है ग़ज़ल
और हर जज़्बात से परदा उठाती है ग़ज़ल
कुछ हक़ीक़त कुछ नफ़ासत कुछ नज़ाक़त से सदा
बात तेरे मेरे दिल की सब सुनाती है ग़ज़ल
मतला, मक़्ता या गिरह हो काफिया हो या रदीफ़
ढलते हैं अशआर में जब सबको भाती है ग़ज़ल
हर कोई इस पे फ़िदा है, सब हुए इसके मुरीद
हम-नवा अपना ज़माने को बनाती है ग़ज़ल
आइने के सामने तो देख पाते हैं सभी
पर जो पीछे है छुपा वह भी दिखाती है ग़ज़ल
सुनने वाला कोई भी होता नहीं जब रू-ब-रू
तब अकेले में ‘शिखा’ ख़ुद को सुनाती है ग़ज़ल